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द्वितीयः सर्गः
५१. लब्धप्रतिष्ठः पुरपाञ्चजन्ये', मान्यो सुदा पक्ष विपक्षतोऽपि । राज्ये प्रजायां विपणावलङ्घ्यो, यज्जीवनं प्रागुपमानभूतम् ॥
नगरवासियों के मन मे वे प्रतिष्ठा प्राप्स थे और पक्ष, विपक्ष - दोनों में, राजकीय कार्यकलापों में, प्रजा में तथा व्यापारिक कार्यों में वे सर्वत्र मान्य हो गए । वास्तव में उनका गार्हस्थ्य जीवन भी एक आदर्श जीवन था ।
५२. प्राक् सर्वतो धर्मविधानकारी, पश्चात् समस्तै हिकसत्प्रपञ्चः । रक्षन्ति पृष्ठे सुकृतं मनुष्या अग्रेसरास्ते च कथं भवेयुः ॥
आपका सबसे पहला काम था धर्म की आराधना । धर्माराधना के पश्चात् ही आप किसी अन्य लौकिक सत्कार्य में संलग्न होते । वे मानव कभी भी उन्नति नहीं कर सकते जो धर्म को गौण कर आगे कदम बढ़ाना चाहते हैं ।
५३. न केवलं भावुकताभिभूतो न केवलं संस्फुरणाविरक्तः । न नूत्नताद्विड् न पुराणपक्षी, यद्गेहवासोऽपि न रूढिरूढः ॥
वे न केवल भावुक थे और न केवल बुद्धि की स्फुरणा से विहीन । वेन नवीनता के द्वेषी थे और न पुराणपंथी । इसीलिए उनका गृहस्थजीवन भी रूढिग्रस्त नहीं था ।
५४. नान्धानुकृन्नान्धवहानुवाही,
नाशिक्षितोन्मार्गमुखावगाही । प्रामाणिकोत्कीर्णपथान्न दूरे, गृहस्थजन्मोऽपि विलक्षणोऽस्य ॥
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वे न तो अन्धानुकरण करने वाले ही थे और न अन्धप्रवाह में प्रवाहित होने वाले ही । वे अज्ञानी व्यक्तियों की भांति उन्मार्गगामी भी नहीं थे । वे प्रामाणिक पुरुषों से अनुसेवित पथ से किञ्चित् मात्र भी दूर नहीं थे । उनका गृहस्थ जीवन भी विलक्षण था ।
५५. अन्येद्युरात्मान्तरवीरणाभिरसौ
स्वयंबुद्ध विचारयामास वलक्षचेताः, अत्येति कालः
किसी शुभ समय में अपने अन्तःकरण की की तरह ही निर्मलभावों से वे ऐसा विचार समय बिना सुकृत के ही बीतता जा रहा है ।
इवाऽतिशुद्धः । सुकृतं विनैव ॥
१. पञ्चजनस्य भावः कर्म वा पाञ्चजन्यम्, पुरपाञ्चजन्यं तस्मिन् ।
२. वीरणा - प्रेरणा ।
अन्तर् प्रेरणा से स्वयं बुद्ध करने लगे — ओह ! मेरा यह
पुरस्य पाञ्चजन्यमिति