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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ४६. पुंसां गिरां भिक्खणसंज्ञया स, जज्ञे प्रसिद्धः कृतिहस्तसिद्धः । वाणिज्यवासा कमला ततः सद्व्यापारसिन्धुं सुतरां ममन्थ ॥
वह लोकवाणी में 'भिक्खण' नाम से जाना जाने लगा और मनीषी मंडल में भी उसकी अपूर्व ख्याति हुई। लक्ष्मी का निवास व्यापार में है इस लोकोक्ति के अनुसार उसने धनोपार्जन के लिए सद् व्यापार-सिन्धु का भी मन्थन किया।
४७. विलोडयामास महाप्रयासर्यदर्थमब्धि युयुधे छलाद्यैः । .. हरि हरं प्रोज्झय मुधैव लक्ष्मीवितृष्णमेतं सततं सिषेवे ॥
जिस लक्ष्मी के लिए समुद्र का मन्थन किया गया, जिसके लिए छलकपटयुक्त भीषण संग्रामों का आविर्भाव हुआ, उस लक्ष्मी ने हरिहरादिक देवों को छोड़ इस धन-निरपेक्ष भिक्षु को ही अपना आश्रय बना डाला ।
४८. लञ्चामृषास्तेयविवञ्चनाद्येविना न वाणिज्यमिति प्रवक्तुः । तेभ्यः पृथग भूय निदर्शितं नाऽसत्यं यतस्तत्र रमानिवासः ॥
ऐसी प्रायः लोकभाषा बन चुकी है कि बिना रिश्वत, झूठ, चोरी और वञ्चना के व्यापार चल नहीं सकता। परन्तु भीखण ने इन सब से परे रहकर धनोपार्जन किया और लोगों को यह सही परिचय दिया कि असत्य आदि का जहां बोलबाला होता है वहां लक्ष्मी का स्थायी निवास नहीं हो सकता। ४९. धनार्जनं नो परवञ्चनाभिमिथ्यावचोभिनं च कूटतोलः। न्यासापहारैर्न परप्रहारैरनीतिभिर्मास्य विवृद्धलोभैः॥
उसने वञ्चना से, मिथ्याभाषण से, कूटतोलमाप से, अमानत के माल को हजम करने से, दूसरों को पीड़ित करने वाले कार्य से, अनीति एवं अतिलोभ से अर्थोपार्जन नहीं किया ।
५०. विनश्वरो रा न परत्रयायो, चलाचलं जीवनजीवनीयम् । ततः किमर्थं वसुसंग्रहात्तिरियं विचिन्त्येति स शान्तचेताः।
यह धन विनाशशील है, परलोक में साथ जाने वाला नहीं है और यह वर्तमान का जीवन भी अस्थिर है तो व्यर्थ ही इस धन-संग्रह के दुख से क्या प्रयोजन ? ऐसा विचार कर वह शान्ति से जीवनयापन करने लगा। १. कृतिहस्तसिद्धः- मनीषीमंडल में ख्यात । २. रा:-धन (राः सारं विभवो वसु-अभि० २।१०५)