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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ३६. भोगावलीकर्मवशंवदेन, न किन्तु भोगामिषलोलुपेन ।
साक्षात् सवित्रीकथनानुगेन, तेनाऽभ्युपेतं किल दारकर्म' ॥
___ तब उसने भोगलिप्सा से नहीं किन्तु भोगावली कर्मों को भोगने के लिए तथा साथ ही साथ माता के कथन का अनुगमन करने के लिए ही विवाह करने की स्वीकृति दे दी।
३७. तीर्थङ्कराद्याप्तसमादतात् सत्परम्परातो बहुदीर्घकालात् ।
प्रतिष्ठितात् सम्प्रति निर्विवादात्, साकल्परूपैश्च तदुच्चगोत्रात् ।। ३८. अमानुषीरूपधरेव जाता, यशोविलासा सुभगा सुशीला। श्रीह्रीयुता तेन महेभ्यकन्या, महोत्सवैः सद्विधि पर्यणायि ॥
(युग्मम्) ___ जो उच्चगोत्र तीर्थकरों आदि आप्तपुरुषों द्वारा समादृत, चिरकाल की परंपरा से प्रतिष्ठित तथा वर्तमान में निर्विवाद और धार्मिक अनुष्ठानों से युक्त थे, ऐसे कुलीन कुल में उत्पन्न होने वाली एक धनी सेठ की कन्या, जो रूप और लावण्य में अप्सरा तुल्य, यशस्विनी, सौभाग्यशालिनी, सुशील, सुन्दर और लज्जालु थी, के साथ ठाट-बाट से विवाह की विधि सम्पन्न हुई। ३९. हयं तया कान्तिविलासयुक्तं, जातं यथानं प्रभया प्रसृत्या। प्रष्टव्य इभ्याङ्गभवो धवोऽपि, क्लप्तः श्रियेवाऽथ चतुर्भुजोऽपि ॥
तब उस नवोढा से उनका वह गृहमन्दिर वैसे ही कान्ति और विलासयुक्त हो गया जैसे प्रसरणशील किरणों से आकाश और उस गुणवती वधू से वे धनीपुत्र भिक्षु भी वैसे ही प्रष्टव्य (लोगों द्वारा मान्य) हो गए जैसे लक्ष्मी के द्वारा श्रीकृष्ण ।
४०. स्नुषा सदाचारविचारवृत्त्या, श्वश्रूः प्रसन्ना सुखिनी शुभंयुः। लेभे न वा भक्तिसुखं स्वजन्याः', रामप्रसूः किन्तु न वञ्चितेयम् ॥
उस पुत्रवधू के सद् आचार एवं सद् विचारयुक्त प्रवृत्ति से सासू अत्यन्त प्रसन्न, सुखी और शुभयुक्त हो गई। रामचन्द्र की माता कौशल्या ने तो शायद अपनी पुत्रवधू सीता की भक्ति का इतना आनन्द प्राप्त किया हो या नहीं, परन्तु माता दीपां तो उस वधू के सुख से वंचित नहीं रही। १. दारकर्म-विवाह (दारकर्म परिणयः-अभि० ३।१८२) २. शुभंयु:-शुभयुक्त (शुभंयुः शुभसंयुक्त:-अभि० ३।९७) ३. जनी-पुत्रवधू (सूनोः स्नुषा जनीवधूः-अभि० ३।१७८)