________________
५६
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ७५. मुक्ति गतानहत आयमायं', निर्मापयन्मन्दिरमन्दिरेषु । __- संस्थापयन्तो बहुवञ्चनाभिनिजेष्ट सिद्धयं निजमानवद्धयं ॥
- और अवशिष्ट यतियों ने अपनी इष्ट की सिद्धि तथा मान-प्रतिष्ठा की वृद्धि के लिए मुक्ति प्राप्त अर्हतों को मुक्ति से बुला-बुलाकर, स्थानस्थान पर निर्मापित मन्दिरों में अनेक प्रवंचनाओं के साथ अर्हतों की मूर्तियां संस्थापित करवाई। ७६. पूजाप्रतिष्ठामह'तीर्थयात्रा स्नात्रा समारोहविभावनाद्यैः । हिंसाक्षवाटाः खलु यत्र तत्र, जिनेन्द्रनाम्ना बहुरच्यमानाः ॥
पूजा. प्रतिष्ठा, महोत्सव, तीर्थयात्रा, स्नात्रोत्सव एवं प्रभावना आदि : के द्वारा भगवान के नाम से स्थान-स्थान पर हिंसा के अखाड़े खोले जाने लगे ।
७७. उदग्रयद्रोधमिषात् प्रकोपैराडम्बरो डम्बरतां प्रयातः । दोपवलद्भिर्भगवन्मुखाग्रेऽसंख्यातसत्त्वोग्रचिताश्चिता यः ॥
तब यति लोगों ने इन आडम्बरात्मक पद्धतियों को घटाने के लिए उपदेश देना शुरू किया, परन्तु बढ़ते हुए अवरोध के बहाने आडम्बर अत्यन्त कुपित होकर और अधिक बढ़ गया और तब असंख्य जीवों को भस्म करने के लिए भगवद् प्रतिमा के सामने प्रचंड चिता के समान अखंड दीप जलाए जाने लगे ।
७८. मुच्यन्त एवाङ्गिगणास्तमोभिर्यस्मिन् क्षण वा सततं भयैर्वा ।
तत्रैव तैस्तनिहता अबोलिप्यन्त आरम्भपरिग्रहाद्यः॥
___ जिस धर्मस्थान में प्राणी पाप से निवर्तन तथा वध एवं भय से विमुक्त होते थे, वही धर्मस्थान उन अज्ञानियों के द्वारा हिंसा का स्थान बना दिया गया और अज्ञानी लोग वहां आरम्भ एवं परिग्रह के पाप से भारी होने लगे।
७९. अजनमानामपि यत्र रक्षा, भयं न तत्रैव निहन्यमानाः । ___ इत्याऽऽशया कि शलभादयोऽपि, पतन्ति किं दीपशिखासु दीनाः ॥ १. आय आयं-- इणक् गतौ इति धातोः णं प्रत्ययस्य रूपम् - बुला
बुलाकर । २. 'मह' इति अकारान्तोऽपि । ३. यात्रा---पितृपूजाधुद्देशेन जिनगृहे यात्राकरणम् । ४. स्नात्रं तु श्राद्धपक्षादिषु पित्रादे: श्रेयसे जिनबिम्बस्य स्नानकरणम् । ५ अक्षवाट. --अखाडा (नियुद्धभूरक्षवाटो-अभि० ३।४६५) ६. क्षण:-वध, हिंसा ।