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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
५६. माताऽनुकूला वनिता विनीता, धनं घनं गौरवमुच्छ्रितं सत् । स्वतन्त्रता शं सुविधा समस्ता, तथापि कस्त्राणकरः परत्र' ॥
यद्यपि माता अनुकूल है, पत्नी विनीत है तथा प्रचुर धन, उन्नत गौरव, स्वतन्त्र जीवन एवं अन्य सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं भी मिली हैं, पर इन सबके होते हुए भी परलोक में मेरा त्राण कौन होगा ?
५७. एतान्यनात्मीयसुखानि शश्वदापातरम्याणि विनश्वराणि ।
भुक्तान्यपि स्फीतभयप्रदानि, चेष्टे स्थिरानन्दकृते कथं न ॥ . ये सारे अनात्मीय सुख-पौद्गलिक सुख आपातरमणीय और विनाशशील हैं। इनके उपभोग का परिणाम अत्यंत भयप्रद होता है । तो फिर अब मैं क्यों नहीं इन्हें छोड़ शाश्वत आनन्द के लिए प्रयत्नशील बनूं ? ५८. नृत्यन्नटीकुण्डललोललोलान्, लीलावतीनां सहजान् बिलासान् ।
विलोक्य किं तत्र सुमूच्छितोऽहं, नाऽऽलोचयाम्यक्षयमात्मतत्त्वम् ।।
_मैं स्त्रियों के सहज विलास को, नृत्य करती हुई नर्तकी के कर्णकुण्डलों की चञ्चलता के समान, चञ्चल जानता हुआ भी क्यों उसमें मूच्छित हो रहा हूं और आत्मा के अक्षय सुखों की प्राप्ति के लिए मैं क्यों नहीं सोच रहा हूं? ५९. कुटुम्बमोहोऽपि विमोहनीयः, सन्ध्याभ्रवर्णोपम एष सर्वः ।
एवं मृशन् स्वस्थतमोऽपि साक्षादधोमुखस्थोब्जवदेव सायम् ॥ ___ यह कौटुम्विक मोह सायंकालीन आकाश के वर्ण के समान अस्थिर और विमूढ बनाने वाला ही है। इस प्रकार विमर्श करते हुए अत्यंत नीरोग भिक्षु भी वैसे ही सिकुड़ गए जैसे सायंकाल में सूर्यविकासी कमल सिकुड़ जाता है।
६०. स्थिरं स्वतन्त्रं सहगामि तथ्यं, निरामगन्धं सुखमेव साध्यम् । गुर्वाग्रहात्तच्च गुरुः स्वबुद्धया, निरीक्षणीयः सुपरीक्षणीयः॥
वही सुख वास्तव में मेरा साध्य है जो चिरस्थायी, स्वापेक्षी, अनवरत साथ में रहने वाला, तथ्यपूर्ण तथा विषयों की दुर्गन्ध से विहीन हो। परन्तु ऐसा सुख वास्तव में सद्गुरुओं की अपेक्षा रखता है, अतः सर्वप्रथम अपनी बुद्धि के द्वारा मुझे सद्गुरु की खोज और परीक्षा कर लेनी चाहिए। १. शं-सुख (शं सुखे—अभि० ६।१७१) २. परत्र-परलोक ।