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द्वितीयः सर्गः
२०. वचः स्वतः संवनना' नुकारि, मनः सदादर्श मदापहारि । वपुः स्वपुण्यप्रभुताप्रसारि, यस्याऽस्ति किं नो भुवि सोऽधिकारी ॥
स्वतः वशीकरण करने वाली वाणी, दर्पण के मद को हरण करने वाला स्वच्छ मन, अपने पुण्य की प्रभुता का सूचक तेजस्वी शरीर – ये सब जिसे उपलब्ध हैं वह यदि संसार में अधिकारी बने तो इसमें आश्चर्य ही क्या है !
२१. यस्यादरो दारितदम्भकस्य, कौमारके लिष्वऽपि सद्गुणे हि । तिरस्कृति स्वाञ्च समीक्ष्य तस्मात्, गतानि कि दुर्व्यसनानि दूरे ॥
उस सरल चेता कुमार के कुमारवय में भी सद्गुणों का ही सत्कार था । इन गुणों के सम्मान से चिढकर तथा अपना तिरस्कार देखकर क्या वे दुर्व्यसन इस सद्गुणी को छोड़ कहीं दूर चले गये ?
२२. उद्धृत्य सर्वान् खरकण्टकान् कि, पर्युल्लसत्पाटलपुष्पसारैः । क्लृप्तं मुखं यस्य यतो यदग्रे, रोलम्बवत् सभ्यगणा भ्रमन्ति ॥
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यह वितर्कणा होती थी कि क्या समस्त कठोर कंटकों को उखाड़कर, विकासोन्मुख पाटल पुष्पों के सार से इसके मुख की रचना हुई है जिससे कि शिष्ट जन इसके आगे भ्रमर की तरह घूमते रहते हैं ?
२३. स्वमुद्रया येन वयोलघिम्ना, विसुद्रिता येऽपि कृताः समुद्राः । पुनः कलाभिः सकलाभिरस्य, धौताः शरच्चन्द्रमसेव मर्त्याः ।
उसने लघुव में ही अपनी मर्यादाशीलता से अमर्यादित व्यक्तियों को भी मर्यादित बना डाला था । उसने शरदचन्द्र की भांति अपनी समस्त उज्ज्वल कलाओं से लोगों को उज्ज्वल बना दिया ।
२४. अथाग्रगण्याः परमेश्वरा ये, लालायिता ते श्रुतदृष्टरूपाः । एकता यमभिभ्रमन्ति भृङ्गा यथाब्जं मकरन्दनन्द्यम् ॥
उस कुमार की सुषमा का श्रवण एवं अनुभव करने वाले उस नगर के प्रमुख वैभवशाली नागरिक गुप्त रूप से उसके पीछे-पीछे वैसे ही घूमने लगे जैसे मकरंद से आनन्दित करने वाले कमल के पीछे-पीछे भ्रमर ।
२५. रुच्यान्यतः क्षिप्तदिवः कुमारस्वर्गावतीर्णाऽऽत्मकुमारिकाभिः । उद्वाहनार्थं कुशलं कुमारं सम्प्रार्थयन्ति प्रथितप्रतिष्ठाः । १. संवननं वश में करने की क्रिया (संवननं वशक्रिया – अभि० ६ । १३४ ) २. आदर्श :- दर्पण (मुकुरात्मदर्शाऽऽदर्शास्तु दर्पण - अभि० ३ | ३४८ )