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द्वितीयः सर्गः
___ 'अयि बालरमे ! तेरा यह कथन मुझे युक्तिसंगत नहीं लगता । तूने आखिर अच्छा किया ही क्या ? तूने तो केवल मोह का पोषण ही तो किया है। पर मैं तो यहां इसके द्वारा समस्त विश्व का उद्धार कराने के लिए ही आना चाहती हूं। अतः तू कृपा कर।' १०. ततः प्रबुद्धा पृथुकत्वपद्मा', प्रोवाच तारुण्यरमां यियासम् । आयाहि ते स्वागतमस्तु हृद्यं, यामीति याता भवतः प्रमुक्ता ।।
उस नव यौवनश्री की हार्दिक भावना को सनकर बाल रमा को प्रतिबोध मिला और वह आगंतुक यौवनश्री से बोली-'आप आओ, मैं आपका हार्दिक स्वागत करती हूं और आपसे मुक्त होकर यहां से प्रस्थान करती हूं।' बाल रमा वहा से चली गई।
११. ततः समन्तानवयौवनश्रीः, समालिलिङ्गे च तमिभ्यसूनम् । यथा वसन्ताद्भुतकञ्जवासा', समस्तविश्वान्तरकाननाङ्गम् ॥
तब उस इभ्य पुत्र का नव यौवनश्री ने चारों ओर से वैसे ही आलिंगन किया जैसे वसन्त ऋतु की अद्भुत सौरभयुक्त कमलों की शोभा समस्त विश्व-काननों का आलिंगन करती है। १२. छटामपूर्वां स्फुटलक्ष्यमाणां, विलोक्य दीपाङ्गभवस्य तस्य । के के न तृष्णाकुलिता वितृष्णा, अप्यम्बुतृप्ता हि यथाऽमृताब्धिम् ।।
उस दीपानन्दन की दिव्य एवं मनमोहक मूर्ति को देखकर ऐसा कौन होगा जो तृष्णा रहित होते हुए भी सतृष्ण न बना हो। क्या साधारण पानी से तृप्त बना हुआ मानव क्षीर समुद्र के पानी को देखकर पीने के लिए नहीं ललचा जाता ? १३. दिवंगतः स्याज्जनकस्तदीयः, कुमारकालेऽपि तदात्तचित्तः । गतिविचित्रा समवत्तिनश्च, यस्याः पुरस्तान बलप्रयोगः ॥
पिता बल्लूशाह का भिक्षु के प्रति अपार स्नेह था। भिक्षु के कुमारकाल में ही पिताश्री का दुःखद देहांत हो गया । काल की गति विचित्र होती है। उसके आगे बलप्रयोग नहीं चल सकता । १४. ततः कुटुम्बस्य समोऽपि भारो, यस्यांसयोर्यात उदारवृत्तः ।
अतुच्छदुःखेऽपि न खिन्नचेताः, धैर्यादधःक्षिप्तमितद्रुराजः।। १. पृथक्कत्वपद्मा-बाल रमा । २. वसन्ते अद्भुतकञ्जवासः यस्यां शोभायाम् ।