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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् अपनी गंभीरता के गुण से समुद्र को नीचा दिखाने वाले उदारवृत्ति कुमार के उन्नत कंधों पर कुटुंब-निर्वाह का सारा भार आ पड़ा, परंतु इस महान् विपत्ति से वह तनिक भी खिन्न नहीं हुआ, अधीर नहीं हुआ।
१५. कुशाग्रबुद्धया परिविस्मितान्यो, लेभे प्रतिष्ठां परमां समाजे । अस्पृष्टदुवृत्तिविवेकशीलः, केषाममान्यो महतां महोभिः ।।
अपनी कुशाग्र बुद्धि से दूसरों को विस्मित करने वाले इस बालक की समाज में गहरी प्रतिष्ठा हुई। दुर्गुण तो इसका स्पर्श भी न कर पाए । ऐसा विवेकशील और विशेषताओं का धनी व्यक्ति किनके द्वारा अमान्य हो सकता है ? १६. वयो लघीयस्तसमेतदीयं, कि पारवश्यं भजनीयमस्य । विचिन्त्य निस्तन्त्रविचक्षणत्वं, मनो मनोऽनुप्रविवेश पुंसाम् ॥
आपकी स्वतंत्र विलक्षणता ने मानो यह सोचा कि अभी इसकी अबस्था बहुत छोटी है, मैं इसकी वशवर्तिनी बनकर क्यों रहूं? ऐसा सोचकर ही वह विलक्षणता जन जन के मानस में व्याप्त हो गई अर्थात् जनमानस में आपकी विलक्षणता की गहरी छाप जम गयी । १७. किमस्त्यसाध्यं किमु कष्टसाध्यं, किं दुर्लभं वा किमशक्यमस्ति । यस्यान्तिके कर्मठकार्यकर्तुः, क्षणोद्भवन्निर्मलधीधनस्य ।
ऐसे प्रत्युत्पन्न निर्मल मति के धनी और कर्मशील व्यक्ति के लिए क्या असाध्य था ? क्या कष्टसाध्य था ? क्या दुर्लभ था और क्या अशक्य था ?
१८. प्रष्टव्य एषोऽस्ति मनस्विमुख्यद्रष्टव्य औदार्यगुणादिदृश्यः । सूच्योतिसारस्वतसूरिसूर्यैर्मुच्यो न पौराधिपतिप्रकृष्टः ॥
बह हमेशा ही मनस्वी मुख्यों के द्वारा प्रष्टव्य, औदार्य आदि गुणों के दृश्यों से द्रष्टव्य, विद्याविशारदों से पूजित तथा पुराधिपति आदि विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा निरन्तर घिरा रहने वाला था।
१९. हरिप्रियापुत्र विजित्वराङ्ग, सम्पन्नगेहे वयसा नवीने । स्वतन्त्रवत्त्वेऽपि न दुर्गुणैर्यो, निरीक्षितोऽभूत्तदतीव चित्रम् ॥
कामदेव पर भी विजय पाने वाला रूप-रंग, सम्पन्न घर में जन्म, यौवन का प्रारम्भ एवं स्वतन्त्र जीवन-इन सब सामग्रियों का संयोग होते हुए भी दुर्व्यसन उसका स्पर्श नहीं कर पाये, यह एक महान् आश्चर्य है । १. हरिप्रियापुत्र-लक्ष्मी का पुत्र कामदेव। .