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द्वितीयः सर्गः
१. अथ प्रभातं परमप्रभातमभ्युदगतं तस्य सयौवनस्य । तदा तमालिङ्गयितुं समागात्, कुमारिका कापि विकस्वरागी ।
अब उस बालक के नव यौवन का परम प्रकाशमान प्रभात उदित हुआ। उस समय कोई विकसित अंगोपांगों वाली सुकुमारी उसका आलिङ्गन करने-उसको स्वीकार करने आयी।
२. समुद्रपुत्रीं मृदुसौकुमारी, तां शैशवीं सा कटुभीषयन्ती । जजल्प बाढं शृणुतात् पलिक्नि!, समागताऽहं नवयौवनश्रीः ॥
उस (नव यौवन लक्ष्मी) ने उस शैशवी अवस्था वाली मृदु सुकुमार लक्ष्मी को तीखा भय दिखाते हुए बाढ स्वर में कहा-'अयि वृद्धे ! अब मैं आ गई हूं।' ३. न तेऽवकाशः क्षणमात्रमत्र, हठात् प्रभुत्वं प्रचिकीर्षुरस्मि । साऽपि समारूढनिगूढकोपा, नाऽहं जिहासुः स्फुटमाचचक्षे ॥
'अब तेरा क्षण मात्र भी यहां स्थायित्व नहीं हो सकता, अतः शीघ्र ही यहां से तेरा प्रस्थान उचित है, अन्यथा बल-प्रयोग के द्वारा तेरे पर शासन करना चाहूंगी।' यौवनश्री की ऐसी उग्रवाणी को सुनकर बाल रमा ने भी कुपित होते हुए, उसे स्पष्ट शब्दों में कहा-'नहीं, मैं यहां से नहीं जाऊंगी।'
४. आबाल्यकालात् परिपालितोऽयं, क्लुप्ता अनेकेऽत्र मनोऽभिलाषाः । फलाभियोगेऽद्य वियोगकर्ती, कुतः कुतस्त्या समुपागतेह ॥
'बाल्यकाल से आज तक जिसका मैंने पालन-पोषण किया तथा जिसके लिए मैंने अनेक कल्पनाएं कीं, क्या इस फल-प्राप्ति की पुनीत वेला में तू मुझे उससे वियुक्त करना चाहती है ? ऐसा चाहने वाली तू कहां से और क्यों यहां चली आयी है ?'
१. समुद्रपुत्री-लक्ष्मी। २. पलिक्नी-वृद्ध स्त्री (वृद्धा पलिक्न्यथ' अभि० ३११९८)