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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
१२५. भूषेन्द्रचापतनुरुक्चपलास्फुरद्वाक्
धाराभिसारमभितः कलयन् कुमारः। मेघोपमोप्यनुदिनं सुदिनं वितन्वन्, केषां प्रियो न सुमुदां कमलोदयेन ।।
भूषणों से इन्द्र धनुष्य की तरह, शारीरिक कान्ति से विद्युत् की तरह एवं चारों ओर स्फुरित होती हुई वाणी से नीर-धारा की तरह यह मेघोपम कुमार सदा सर्वदा सुदिन करता हुआ, आनन्दरूपी कमलोदय से किन-किन के प्रिय नहीं बना अर्थात् सर्वप्रिय बन गया।
१२६. बाल्येऽपि येन निजकोतिसुरापगायां,
के प्लाविता न मुदिता न पवित्रिताश्च । व्युत्पन्नबुद्धिविभवनहि चित्रिता वा, के के दरिद्रितजना न कृताः कृतार्थाः ।।
ऐसे कौन थे जो इसकी शैशवकालीन कीति की सुरसरिता में आप्लावित, आनन्दित और पवित्रित नहीं हुए ? ऐसे कौन थे जो इसकी व्युत्पन्न बुद्धि के वैभव से विस्मित नहीं हुए अथवा ऐसे कौन दरिद्रजन थे जो इससे कृतार्थ नहीं हुए ?
१२७. कीडन् सदा समवयोबलवैभवाद्यः,
पौरैः प्रधानपृथुकैः सह सद्विनोदैः। पित्रोर्मनः प्रमदयन् जयवत् सुखेन, दीपाङ्गजो निजकुमारवयो ललचे ।
अवस्था, बल एवं वैभव आदि गुणों की समानता वाले नागरिक बच्चों के साथ क्रीडा करता हुआ यह बालक भिक्षु इन्द्रपुत्र 'जय' की तरह ही माता-पिता को पुलकित करता हुआ बाल-अवस्था को पार कर गया ।
श्रीनाभेयजिनेन्द्रकारमकरोद्धर्मप्रतिष्ठां पुनर्य: सत्याग्रहणाग्रही सहनयराचार्यभिक्षुर्महान् । तत्सिद्धान्तरतेन चारुरचिते श्रीनत्थमल्लषिणा, श्रीमद्भिामुनीश्वरस्य चरिते सर्गोऽयमाद्योऽभवत् ।।
श्रीनथमल्लर्षिणा विरचिते श्रीभिक्षुमहाकाव्ये भिक्षुजन्मदेहलक्षणनामा प्रथमः सर्गः ।