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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
ऐसा लग रहा था मानो मेघमाला के हृदय का सार रस लेकर तथा नील अणुओं एवं नीलमणियों से समस्त सारभूत तत्त्व को लेकर ही बल्लुशाह के लाल के शरीर की स्निग्ध त्वचा बनी हो और इसीलिए तो वह दर्शकजनों के नेत्र-कमलों को आनन्दित करने में समर्थ हो रही थी।
११८. रोमाणि तस्य विसतन्तुतनुत्वशोभां,
संहृत्य यस्य वपुषि प्रतिमाश्रितानि । तस्मात् त्रपाभिरुदके किमु पद्मदण्डा, मग्नाः कथं श्रियमृते मुखदर्शकाः स्मः ॥
ये रोम निश्चित ही कगल नाल की सुकुमार और तनु शोभा को हरण कर इसके शरीर की आकृति पर आश्रित हो गये हैं। इसीलिए मानो श्री–शोभा के बिना लज्जित होते हुए ये पद्मदण्ड अपना मुंह न दिखाने के लिए पानी में डूब गये हैं। ११९. भक्तरुपर्युपरि भिन्नविलक्षणैस्तः,
सल्लक्षणैर्विनिहितं स्वपदं यदङ्गे । अम्भोभिरम्बुदयिते वसुभिः सहैव, लोकेऽर्कचन्द्रकिरणरुडुभिर्यथैव ॥
भिन्न भिन्न विशेषता वाले इन सल्लक्षण रूप भक्तों ने अहमहमिकया आगे बढकर इसके शरीर में अपना स्थान वैसे ही जमा लिया जैसे कि रत्नों के साथ पानी समुद्र में और नक्षत्रों के साथ सूर्य-चन्द्र की रश्मियां इस लोक
में ।
१२०. दृष्टो न दोषनिकरैरपि यः कटाक्ष
>षातनैरिव तमोभिरहर्पतिश्च । स्पृष्टोऽपि नो शिशरयं व्यसनरनिष्टधर्मो यथा जिनमतो न वधादिपापैः ।।
दोष तो इसकी ओर टेढी नजर कर वैसे ही नहीं देख सके जैसे कि रात्रिकालीन अन्धकार सूर्य को तथा व्यसन उसे वैसे ही नहीं छू सकें जैसे कि हिंसा आदि दोष जिनधर्म को। १२१. स्नानं विनाऽपि विमलः कमलानुकारी,
भूषामृतेऽपि निखिलागि मनोपहारी। स्नेहैः पृथक् पृथुलकान्तिकलापकान्तः,
आलेखयामि किमतोऽस्य शिशुत्वचित्रम् ॥ १. अम्बुदयिता-समुद्र ।