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प्रथमः सर्गः
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इसके दोनों पैरों की अंगुलियों की सुन्दरता से लज्जित होते हुए मानो किसलय संकोच से अति तनुता को प्राप्त हुए और इतने खिन्न हो गए कि वे अपने शरीर का त्याग करने के लिए आतुर होकर अपने गले को वृक्ष के ऊपर बांध कर लटकने लगे।
११४. अद्यापि यस्य चरणेषु विलग्नतो हि,
प्राप्ता 'महा'सहितराजपदं वयं तत् । पश्चात्तु किं पदनखा: स्फुरदंशु हस्तैरेवं लपन्त इव ते किमु तस्थिवांसः ॥
जिनके चरण कमलों में लगे रहने मात्र से ही आज हमने 'महाराज' पद पा लिया तो फिर बाद में तो न मालूम हम क्या बन जायेंगे, मानों ऐसा कहते हुए प्रस्फुटित किरण-समूह युक्त वे चरण-नख वहां पर स्थित थे।
११५. याम्ये क्रमे स्फुटतरा विततोर्ध्वरेखा,
संवादिनी गरिमगौरवचारुतायाः। यस्योल्वणारुणचरित्रमहामहिम्नः, एष्यज्जिनेन्द्रपदचिह्नपथानुगस्य ॥
उसके दक्षिण पैर में स्पष्ट और लंबी ऊर्ध्वरेखा उसके गरिमामय श्रेष्ठ गौरव की संवादिनी थी। वह यह बता रही थी कि यह व्यक्ति स्पष्ट और कठोर चारित्र की महामहिमा से मंडित तथा भविष्य में जिनेन्द्र के पचिन्हों से चिन्हित मार्ग का अनुसरण करने वाला होगा।
११६. आकर्षणाय कुशला कुशलोत्तमानां,
संबोधनाय विदुरा छिदुराशयानाम् । संस्थापनाय तरला तरलाथिकाणां, यस्याकृतिर्वसुमती सुमतीन्दिरायाः ॥
उसकी आकृति कुशल एवं उत्तम व्यक्तियों को आकर्षित करने में निपुण, संशयशील पुरुषों के संशय को दूर करने में दक्ष, आगमार्थ के जिज्ञासु व्यक्तियों को संतुष्ट करने में चपल तथा सुमतिरूप लक्ष्मी की आधार भूमी थी।
११७. कादम्बिनीहृदयसाररसं विनीय,
नीलाणुनीलमणितत्त्वमुपेत्य सर्वम् । कि बाल्लवस्य ममृणा रचिता तनुत्वक, तस्माद् दिदृक्षुनयनान्जविनोदनीया ॥