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प्रथमः सर्गः
यह बालक स्नान के बिना ही निर्लेप कमल की तरह विमल, अलंकार के बिना ही समस्त प्राणियों का मन हरने वाला, स्नेह के बिना ही विपुल कान्ति से कमनीय था। ऐसे इस बालक के विषय में और अधिक क्या उल्लेख करूं?
१२२. रूपं स्वरूपमभिबोधयितुं प्रकामं,
कस्ताकिकोऽपि गमयेत् तदृते पदार्थान् । उक्ताऽकृतिस्तत इयं शुभलक्षणाभिर्यत्राकृतिर्लसति तत्र गुणा वसन्ति ।।
उस बालक की आकृति अर्थात् रूप ही उसके स्वरूप को बतलाने में पर्याप्त था, क्योंकि ऐसा कोई भी तार्किक नहीं हो सकता जो कि स्वरूपज्ञान के बिना भी पदार्थ का परिचय दे सकता हो। इसीलिए शुभ लक्षणों से शिशु की आकृति का वर्णन किया गया है और यह प्रसिद्ध कहावत भी है कि जहां रूप होता है वहां गुणों का निवास भी होता है।
१२३. कार्यात् परोक्षमयकान्यपि लक्षणानि,
ज्ञायन्त एव मुनिपस्य मतस्य तस्य । नद्यम्बुपूरमनुवीक्ष्य समीक्ष्य साक्षाद्, वृष्टिगिरेः शिरसि केन न लक्ष्यते किम् ।।
इस मान्य मुनिप के कार्यकलापों को देखने से परोक्ष में रहे हुए उसके शुभ लक्षणों का पूरा पूरा परिचय मिल सकता है, जैसे कि साक्षात् नदीप्रवाह को देखने पर गिरि शिखरों पर होने वाली वृष्टि का ज्ञान किससे छिपा रह सकता है ?
१२४. इत्थं तदाऽवितथकारणमेवजात
मस्मत्कृते तु सुविवेचितकार्यमद्य । स्याद्वादसिद्धिकरणाय विरुद्धधर्मा, भूतोद्भवत्समयत: किमसौ कुमारः ।।
इस प्रकार जो भूतकाल में यथार्थ कारण था, वही हमारे लिए आज सुविवेचित कार्य है । स्याद्वाद की सिद्धि करने के लिए ही मानों यह बालक इन दो-भूत और वर्तमान समय के भेद से विरुद्ध धर्मों की आधारशिला बन गया। १. प्रकाममिति अस्त्यर्थे ।