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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
समस्त उच्च कोटी के भावों वाले, अन्तर में स्फुरित तथा अखिल विश्व को आनन्दित करने वाले, ऐसे दोनों कपोल-फलक फूले हुए थे, अथवा श्रान्त बनी हुई (थकी-मांदी) सरस्वती ने अपने दो रूप बना बाहर विश्राम पाने के लिए ही इन कपोल-फलकों के मिष से ये दो मुकुरासन बनाये हैं।
८८. दीपप्रभं मनुजमानसदीपनाय,
वक्त्रं यदीयमवलोक्य विलोकनीयम् । श्रान्ताऽऽहता चलचला पवनप्रहारः, कि संस्थिताऽत्र शुभदीपशीखेव नासा ।।
इनका मुख मनुज के अन्तःकरण को आलोकित करने के लिए दीपक के समान है, दर्शनीय है। यह देखकर पवन के झकोरों से श्रान्त, आहत एवं चलाचल बनी हुई शुभ्र दीप-शिखा नासिका के मिष से यहां स्थिर हो गई।
८९. आरोहणावतरणाय च योगदृष्टि
निःश्रेणिका धृतवती किमु यस्य नासाः। कृष्णाशयात् समबलात् नहि योद्धणी वा, द्वचक्षणोस्ततोन्तरगत: किमु सीमदण्डः ॥
क्या इनके नाक के मिष से यहां पर योगदृष्टि ने अपने चढने और उतरने के लिए ही यह निःसरणी रखी है या काली कीकी अर्थात् मलिन आशय वाली एवं समान शक्ति वाली ये दोनों आंखे आपस में झगड़ न पड़े, इसलिए यहां पर इन दोनों आंखों के बीच में यह नाक नहीं, अपितु प्राकृतिक सीमादण्ड है.?
९०. यस्याशयाहतवचोवरमन्दिरस्य,
नाना सुवर्णमणिसंवननै तस्य । । शभ्रौ कपाटपरिघार्पणतावदान्यो, बिम्बो'पमौ यदधरौ सुमुदा प्रजातौ ॥
उनका हृदय भगवद् भारती का भव्य भवन था। वह नाना प्रकार की सुवर्ण-मणियों और मोहक मंत्रों से भरा हुआ था। उनके मंडलाकार दोनों ही अधर उस भव्य मंदिर के कपाट की अर्गला के समान अर्पणता और वदान्यता के द्योतक थे। १. संवननम् -वशीक्रिया (संवननं वशीक्रिया-अभि० ६।१३४) २. वदान्यः-दानशील (दानशीलः स वदान्यः-अभि० ३।१५) ३. बिम्बम्-मंडल (बिम्बं तु मण्डलम्-अभि० २।२१)