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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
___आर्यों का उपकार करने वाला, अनार्यों के विकार को हरण करने वाला, सार-सार अंशों वाले तत्त्वरूप मणि-रत्न द्वारा प्रकाश करने वाला, प्रथम चक्रवर्ती भरत के खले हुए छत्ररत्न की तरह इसका मस्तक देदीप्यमान हो रहा था ।
८१. लेखा त्रिविष्टपतले भविताऽस्य तस्माद्,
रेखात्रयाङ्कितविशालललाटपट्टः। सौम्यातिशायिगुणतो विजिताष्टमीन्दुदत्तार्द्धभाग इव वा विललास भाभिः ॥
तीन लोक में इसकी परंपरा चलेगी, मानों इसको सूचित करने के लिए ही इनका विशाल ललाट पट्ट तीन रेखाओं से अंकित था, अथवा सौम्य गुण से जीते हुए अष्टमी के चान्द ने तो मानों पराजित होकर अपना आधा भाग ही इनको दे दिया हो, ऐसा इनका अर्धचन्द्राकार ललाट किरणों से .चमक रहा था।
८२. यस्य भ्रवौ भ्रमरभङ्गुरभासमाने,
कामं विजेतुमनिशं दृढचापयष्टी। आजन्मभिन्नवनितावतलोचनाभ्यामुत्थापिते इव नितान्तमदीपिषाताम् ॥
जिसके भ्रमर की तरह श्यामल और टेढे भ्रू देदीप्यमान होते हुए ऐसे लगते थे मानों आजन्म परदारव्रत वाले लोचनों ने कामदेव को जीतने के लिए ही निरन्तर दृढ चापयष्टी उठा रखी हो ।
५३. शङ्खोऽपसंख्यविधुदर्पणदीधितीनां,
प्रामाणिकप्रतिभटप्रतिसाक्षिणाञ्च । आत्मान्तरेन्द्रियविकारमहारिपूणां, प्रौद्यज्जयेऽस्य नृपतेः किमु वादनाहः ॥
क्या सख्यातीत चन्द्र एवं दर्पणों की किरणों पर तथा गणमान्य प्रतिपक्षियों की मिथ्या साक्षियों पर या अपनी इन्द्रियों के विकार रूपी महाशत्रुओं पर विजय पाने के लिए ही इस (भिक्षु) नृप के बजाने के लिए यह कनपटीरूप विजयी शंख है। . १. लेखा-शृंखला, परंपरा (राजिलेखा ततिर्वीथी-अभि० ६।५९) २. भाः-किरण (भाः प्रभावसु "अभि० २११४) ३. शंखः- कनपटी (शंखो भालश्रवोन्तरे-अभि० ३।२३८)