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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
७३. यन्मुन्मुनालपनमाग्य पिबन सुधाभ,
वप्ता स्वकर्णपुटकः कथमेष तृप्येत् । . पश्यंस्तथा दलितचन्द्रकणाभदन्तज्योत्स्ना किरन्तमभितः सततं हसन्तम् ।।
चन्द्रकण की आभा को तिरस्कृत करने वाले दांतों की किरणों को चारों ओर फैलाते हुए तथा सतत हंसमुख रहने वाले इस बालक की ओर देखते हुए, उसकी अमृततुल्य तुतलाहट को कानों से सुनते हुए पिता बल्लूशाह कैसे तृप्त हो सकते हैं ?
७४. सर्वोच्चसुन्दरतमस्त मसां निहन्ता,
नीलारविन्दवदनो मदनप्रमाथी । वृद्धि गतः पृथुक एष समैः प्रतीकैरभ्रे यथा हि मुदिरो मरुतोत्तरेण ।।
अत्यंत सुन्दर, अन्धकार का नाश करने वाले, नीलकमल की आकृति वाले तथा कामविजेता इस बालक के सभी अवयव वैसे ही वृद्धिंगत होने लगे जैसे गगन में स्थित मेघ उत्तर दिशा की हवा से वृद्धिंगत होता है ।
७५. पित्राज्ञया शुभदिने विनयानिशुल्कादार्याद् गुरोरधिगतैहिकसर्वविद्या । औत्पत्तिकप्रतिभया स्वकशशवेऽपि, के के न विस्मितिमिता अमुना जगत्याम् ॥
किसी शुभ दिन में पिता का आदेश पाकर वह बालक अवैतनिक आर्य गुरु के पास विनयपूर्वक विद्या पाने के लिए गया और ऐहिक सभी विद्याओं में कुशलता भी प्राप्त की। इस शिशु ने बाल्यकाल में ही अपनी औत्पत्तिकी बुद्धि से किन-किन को विस्मय में नहीं डाला ? ७६. प्राक शिक्षिताऽच्छयतनाविधिरीतिनीति,
धर्मकियां स्वतनयं प्रति शिक्षयित्री । नो कैवलंहिकविधां वरमातृदीपा, कि प्रेम तच्च जिनधर्मपराङ्मुखं यत् ॥
__ माता दीपां ने अपने इस लाडले लाल को केवल ऐहिक विधियां ही नहीं बतलायीं पर उसने उसे प्रारंभ में ही धर्म की उत्तम यतनाविधि, रीति, नीति आदि धर्मक्रियाएं भी सिखलादी थीं। वह प्रेम ही क्या ज़ो. जिनधर्म के विपरीत हो !