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प्रथम: सर्गः ६९. उल्लोलितामृतसरोगसुधांशुमूत्ति
नूत्यत्सुरेश्वरशचीतरलीयमूर्तेः । तेजःप्रतापविजयिध्वजधूतमूत्तियो दर्शनार्थिकनृणाञ्च विनोदमूत्तिः ॥
___ अमृत सिन्धु में कल्लोल करते हुए चन्द्रमा की तरह शीतल, नृत्य करती हुई इन्द्राणी के हार के मध्यस्थित मुक्ताफल के समान चपल, तेज और प्रताप से फहराते हुए विजय-ध्वज के समान विजयी, यह शिशु दर्शनार्थी लोगों को आनन्दित करने के लिए विनोद का मूर्त रूप धारण कर रहा था।
७०. ज्योत्स्ना यथा सितवला सुकलाभिरिन्दु,
कल्पद्रुमं सुरगिरेर्वसुधा सुधाभिः । माता तथाऽर्भकममुं स्तनदिव्यदुग्धधाराभिरिभ्यवनिता सुतरां पुपोष ॥
शुक्ल पक्ष की चन्द्रिका जैसे अपनी कलाओं से चन्द्रमा को तथा सुमेरु की धरा कल्पतरु को अमृत से पोषित करती है ठीक वैसे ही सेठ बल्लुशाह की धर्मपत्नी माता दीपां ने भी अपने स्तनों की दिव्य दुग्ध-धारा से सदा पुत्र का पोषण किया ।
७१. प्राग् नन्दना जगति चञ्चलचञ्चला ये,
पश्चात्त एव किमु कार्य करा भवेयुः। नो शीतमृण्मयनिभा इति किंवदन्ती सार्थी चिकीर्षुरिव एष तथाविधः किम् ॥
एक किंवदन्ती है कि जो बचपन में चञ्चल होता है, वही आगे जाकर कुछ कर गुजरने वाला होता है, किन्तु प्रारम्भ में ही जो ठण्डी मिट्टी (निष्क्रिय) होता है वह कुछ भी नहीं कर सकता। क्या इसी कहावत को चरितार्थ करने के लिए ही यह शिशु अपने शैशवकाल में इतना चंचल था ?
७२. गच्छन् स रिवणगतैर्वलिताऽऽननेन,
पश्चात् पुनः स्वजननी दरिदृश्यमानः । हर्ष कियन्तमकरोच्च तदीयमानं, जानाति सैव विधिवत् परमेश्वरो वा ॥
घुटनों के बल रेंगता हुआ और बार-बार मुड़कर माता की ओर देखता हुआ यह शिशु अपनी माता को कितना हर्षित करता होगा, यह तो उसकी मां ही जान संकती है या भगवान् ही जान सकते हैं।