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प्रथमः सर्गः ९८. देवाधिदेवगरुधर्मकृते वधान्ध
श्रद्धालुनेतनरकाऽऽपतयालुमुख्यान् । आडम्बराम्बरघनाघनघूणितान्ननुद्धर्तुमस्य किमु जानुविलम्बिबाहू ।।
देव, गुरु और धर्म के लिए हिंसा करने वाले अन्ध श्रद्धालुओं में अग्रसर, नरक में पतनशील, आडम्बर के अम्बर में घनाघन घटा की तरह पूणित मनुष्यों का उद्धार करने के लिए क्या इस शिशु के बाहु घुटनों तक लंबे हुए हैं ?
९९. नेत्रानलेन निहतो मदनो महेश- -
मत्स्यस्तदस्य भयत: परिहाय केतुम् । सिन्धौ गिलागिलमवेक्ष्य शरण्यकामी, सव्यान्यपाणिकमलं समलचकार ॥
मानो महादेव के नेत्र-अनल से कामदेव के भस्मीभूत होने पर, उसकी ध्वजा में स्थित मत्स्य भय से ध्वजा को छोड़ सिन्धु में आया, पर वहां भी 'मच्छ-गिलागिल' देख शरण की भावना से भिक्षु के इस दक्षिण हाथ में आ बैठा, उसे अलंकृत किया । (शिशु के दक्षिण हाथ में मत्स्य का चिन्ह था।)
१००. यत्कान्तिनीरपरिपूरभृताच्छराजी
राजन्नदीनदनिपातविवृद्धवीचिः । मत्स्याम्बुजादिशुभसूचकलक्षणेर्यो, हस्तः समुद्र इव संशुशुभे ससीमः ।।
जिसकी कान्ति रूप पानी के पूर से भरी हुई स्पष्ट छोटी-बड़ी रेखाओं रूप नदी-नदों के निपातों से बढते हुए कल्लोलों वाला, मत्स्य और कमल आदि शुभ लक्षणों वाला उसका हाथ ससीम-मर्यादित सिन्धु के समान सुशोभित हो रहा था।
१०१. तापत्रिकस्त्रिभुवनं सततं ज्वलन्तं,
निष्काशितुं द्रुततरं जिनपत्रिरत्नः । लेखाः कृताः स्मरयितुं किमु ता हि तिस्रः, प्रोल्लेसुरस्य सुतरां मणिबन्धरेखाः ॥
१. लेखा-रेखा (राजिर्लेखा ततिर्वीथी-अभि० ६।५९) २. सूनृतं-शुभ, सत्य (प्रियसत्यं तु सूनृतम् -- अभि० २।१७८) "