________________
प्रथमः सर्गः.
९१. द्वात्रिंशता पुरुषपुङ्गवलक्षणर्यन्,
नित्यं विभास्यति जगच्छिशुशेखरोऽयम् । तत्प्रत्ययाय लपने दृढपंक्तिबद्धा, द्वात्रिंशदुज्ज्वलतमा दशना हि दृश्याः ॥
पुरुष पुंगवों के बत्तीस लक्षणों से युक्त यह शिशुशेखर इस विश्व को सदा प्रकाशित करता रहेगा, ऐसा विश्वास दिलाने के लिए ही मानों इसके मुंह में ये पंक्तिबद्ध बत्तीस उज्ज्वलतम दृढ दान्त चमक रहे हैं। ९२. श्रीवीतरागवदनोद्गतवाग्रसज्ञा,
पद्मद्रहोद्भवसुराम्बुवहारसज्ञा । सर्वं पवित्रयितुमेव रसाऽरसज्ञा, लीलारविन्दविदिताऽरुणिता रसज्ञा ॥
शिशु की रसज्ञा-जिह्वा लक्ष्मी के लाल कमल की भांति लाल थी। वह श्री वीतरागदेव के मुख से निकली हुई वाणी की रसज्ञा -- रस को जानने वाली तथा पद्म द्रह से उद्भूत सुरसरिता की रसज्ञा-उसके जल को जानने वाली थी। वह सबको पवित्र बनाने के लिए रसा-पृथ्वी थी तथा अरसज्ञा--- इन्द्रियो के विषय-रस से अपरिचित थी।
९३. मन्पे यदीयरसनाङ्गणसारसार
माणिक्यरत्नरचनाञ्चितरङ्गमञ्चः। आजन्मवैरमपहाय रमा च विद्या, हल्लीसकं सहसनं तनुतः स्म वाग्भिः ॥
मानों अपने जन्मजात वैर को भूलकर लक्ष्मी और सरस्वती का वाणी के साथ मिलकर हास्यपूर्वक नाटक करने के लिए शिशु का रसनाङ्गण एक प्रकार के सार-सार माणिक्य रत्नों से बनाया हुआ रङ्गमञ्च था।
९४. यस्याधरः परिसरे पिशनत्वचाटु- .
कार्यादिदोषहननेष्वऽसिक' बभार । भावी यदेष पृथुकोऽपि सुवृत्तशाली,
तस्माद् बभूव चिबुकं किमु चारुवृत्तम् ॥ १. हल्लीसकं ---मंडलाकार नृत्य (मण्डलेन तु यन्नृत्यं स्त्रीणां हल्लीसकं हि
तत्-अभि० २।१९५) २. असिकम् -- ओष्ठ के नीचे वाला भाग, ठुड्डी (अभि० ३।२४५) अथवा ___ खड्ग । ३. चिबुकम्-ठुड्डी (असिकाधस्तु चिबुकं स्याद्-अभि० ३।२४६)