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प्रथमः सर्गः
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अत्यन्त बलशाली व्यक्ति भी यदि अपने स्वामी का अनुगमन छोड़ देते हैं तो वे निश्चित ही नष्ट हो जाते हैं । इस शिशु को ऐसा ही प्रबोध देने वाला समझकर ही वे क्षीण कांति वाले तारे भी अपने स्वामी चन्द्रमा की ओर दौड़ने लगे-आकाश से विलुप्त हो गए।
४९. दीक्षां गते प्रणयिनि प्रमदा गृहस्था,
नो आदरं न च सुखं लभते कदापि । इत्थं विमृश्य रजनी रचितप्रणामा, प्राणेशवत् सपदि संयमिता बभूव ।।
पति के दीक्षित हो जाने के बाद भी जो पत्नी गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करती है वह कभी भी सम्मान एवं सुख को प्राप्त नहीं कर सकती। ऐसा सोचकर रजनी भी उस शिशु को प्रणाम करती हुई, अपने प्रियतम चन्द्रमा की भांति ही संयमित हो गई, चली गई। .. .
५०. सौजन्यशुभ्रनयमार्गममुं स्वकीयं,
ते तत्प्रभुं सपदि बोधयितुं समेताः । सम्प्रेषयन्ति निखिलं प्रतिबोध्य मित्रं', दीपाङ्गजस्य शुभजन्ममहोत्सवाय ॥
अपनी सज्जनता और नैतिकता का परिचय देते हुए उन तारों एवं चन्द्रमा आदि ने दिन के अधिकारी सूर्य को रात्रिकालीन उस घटना की पूरी अवगति देते हुए दीपां मां के पुत्र के शुभ जन्मोत्सव पर जाने की प्रेरणा दी। ५१. सिन्दुरिमारुणिमसंभृतचारुवेषा,
प्राची' प्रसारितदिगन्तविनोदमाला । आविर्गता पुलकिता स्वककान्तिकांतं, द्रष्टुं द्रुतं सुतसुतं स्वपितामहीव ॥
__ अपनी कांति से ही कमनीय लगने वाले उस शिशु को देखने के लिए मानो लाल और सिन्दूर वर्ण वाले वेष को धारण कर, क्षितिज के उस पार तक अपनी आनन्द की लहर दौड़ाती हुई, अत्यन्त उल्लास के साथ प्राची दिशा भी शीघ्रातिशीघ्र वहां पर वैसे ही आई, जैसे कि अपने लाडले पौत्र को देखने के लिए दादी मां आती है। (प्राची का पुत्र प्रभात और प्रभात का पुत्र सूर्य ।) १. मित्रः -- सूर्य (मित्रो ध्वान्ताराति...--- अभि० २।१०) २. प्राची-पूर्व दिशा (पूर्वा प्राची-अभि० २।८१).