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प्रथमः सर्गः
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'षट्कायिक जीवों की रक्षा करने वाले जैन उपासक द्वारा भी खुले मुंह आदि कारणों से मैं मारा जा रहा हूं, पर यह बालक भविष्य में मेरा निश्चय रूप से रक्षक होगा', ऐसा सोचकर वह मन्थरगतिपवन उस दीपाङ्गज के शरणभूत चरणों को चूमने लगा ।
५६. भास्वानथात्मिक सहस्रकरप्रसृत्या, '
व्यानञ्ज' विष्णुचरणैः सह मर्त्यलोकम् । सम्यग् यदुद्भवमहो भवितुं निजान्यैः, शक्यो न किं भवति पुण्यवतां प्रभावात् ॥
उस समय सूर्य ने भी मानो अपने सहस्ररश्मिरूप पसर से आकाश एवं भूतल का परिमार्जन किया ताकि उस महापुरुष का जन्म महोत्सव स्वयं तथा दूसरों द्वारा भी अच्छी तरह से मनाया जा सके । पुण्यवान् व्यक्तियों के प्रभाव से क्या संभव नहीं होता ?
५७. स्नातानुलिप्तहरिचन्दनचचिताङ्गो,
रङ्गात् प्रसङ्गबहुसम्भ्रमं विभ्रमाद्यैः " । स्वा लोकशोक परिहारिधनं
ददानः
क्व क्व प्रसारितकरो न विभाकरोऽस्मिन् ॥
उदीयमान सूर्य ने स्नान करने के पश्चात् अपने शरीर को हरिचंदन ( पीले चन्दन ) से अनुलिप्त करते हुए, प्रस्तुत प्रसंग पर बहुत उत्साह और आनन्द से इतस्ततः परिभ्रमण करते हुए अपने शोकहारी आलोकरूपी धन का वितरण करने के लिए कहां-कहां अपनी किरणों को प्रसारित नहीं किया अर्थात् सूर्य की किरणें सर्वत्र प्रसृत हो गईं ।
एव ।
५८. अर्हन् न चेद् भवति दुःषमपञ्चमारे, जातोऽयमेष जिन राजसमान इत्थं हि विज्ञपयितुं मिलितानि सार्द्धं, तूर्याणि मङ्गलमयानि तदा प्रणेदुः ॥
१ प्रसृतिः - पसर, अर्द्धांजलि (प्रसृतः प्रसृतिः - अभि० ३।२६२ ) २. अञ्जुर् 'व्यक्त्यादी' इति धातोः णबादिरूपम् ।
३. विष्णुचरण:- - आकाश (विष्णुपदं वियन्नभः - अभि० २ ७७ )
४. सम्भ्रमः —उत्साह |
५. विभ्रमः - इतस्ततः भ्रमणम् ।