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प्रथमः सर्गः
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४२. दोषाकर' जगति दर्शयतीति दोषा',
दुर्नाम मे तदपनेतुमियं सुवेला। . तस्माद् गुणाकरममुं प्रतिदर्श्य साक्षाज, ज्योत्स्नावती भवति या सगुणा विनोदात् ।।
जगत् को दोषाकर-चन्द्रमा दिखाने वाली रात्रि ने अपने 'दोषा'इस दुर्नाम को मिटाने के लिए यह सुवेला है, यह सोचकर वह युणों के आकर इस शिशु को देख-देखकर ज्योत्स्ना तथा अन्यान्य गुणों से युक्त हो गई।
४३. चन्द्रातपेन वसुधां परिलिम्पयन्ती,
स्थाली नमोङ्गणमयीं तुहिनांशु दीपाम् । ज्योतिः सुमां शुचि रुहां कुज कुङ्कुमाञ्च, धृत्वा निशा किमिह गायति मङ्गलानि ।
उस समय ऐसी तर्कणा हुई—'क्या रात्रि ज्योत्स्ना से संपूर्ण भूमि का लिंपन करती हुई, आकाशरूपी थाली में चन्द्रमा का दीपक लेकर, तारामय फूल, किरणमयी दूब तथा मंगलग्रह रूप कुंकुम को सजाए, यहां मंगलगीत गाने के लिए प्रस्तुत हुई है ?' ४४. आनन्दमेतमनुभूय मनोऽभिवेद्यं,
नो तस्थुषी विहगनादमिषान्नदन्ती । प्रोज्जागरां विदधती नगरे समग्रे, दोषाकरं कृतवती च सुधाकिरं तम् ।।
उस समय रात्री मन से संवेद्य आनन्द का अनुभव कर, पक्षियों के कलरव के व्याज से मुखरित होती हुई समूचे नगर के नागरिकों को जागृत कर रही थी। वह दोषाकर - चन्द्रमा को सुधाकर बनाती हुई वहां से प्रस्थान कर गई, रात्रि बीत गई। १. दोषाकर -चन्द्रमा । २ दोषा--रात्री (उषा दोषेन्दुकान्ता-अभि० २।५७) ३. चन्द्रातपः-चांदनी (चन्द्रातपः कौमुदी च ज्योत्स्ना-अभि० २।२१) ४. तुहिनांशुः-चन्द्रमा । ५. ज्योतिः-तारा (ताराज्योतिषी भमुडुग्रहः–अभि० २।२१) ६. शुचिः-किरण (शुचिमरीचिदीप्तयो -अभि०२।१३) ७. रुहा-दूर्वा (दुर्वा'... "हरिताली रुहा-अभि० ४।२५८) ८. कुजः-मंगलग्रह (मंगलोंगारकः कुजः-अभि० २।३०)