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प्रथमः सर्गः
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उस गर्भ को धारण करती हुई दीपां का चेहरा वैसे ही चमकने लगा जैसे सरिता में किरणों के केन्द्र सूर्य का प्रतिबिम्ब चमकता है । उस गर्भ के प्रभाव से दीपां के विचार बहुत उन्नत रहने लगे। यह ठीक कहा है'होनहार संतान की पहचान गर्भ में ही हो जाती है।' ३५. श्रीवीतरागचरणापितचित्तवृत्ति
र्जाता सदा सुकृतिसन्ततिसन्निबद्धा ।। सतिनी च विमला कमलेव कान्ता, गम्यागुणर्जगति वल्लभवल्लभाऽभूत् ।।
अब दीपां ने अपना मन श्री वीतराग के चरणों में लगा दिया। वह निरन्तर कल्याणकारी परम्परा में रमण करने लगी। उसका व्यवहार मृदु
और सद् था । वह अपने सद्गुणों के द्वारा लक्ष्मी की तरह प्रिय हो गई। पति के लिए तो वह अत्यन्त प्रिय थी ही।
३६. संक्रान्तशीतरुचि'दुग्धसरित्समाना,
भाषामिता नियमिताशनपानमात्रा । कल्पाकुरं यदुदितं सफलार्थकारि, गर्भ सुरक्षितवती धरणीव धीरा ।।
चन्द्रमा से संक्रांत क्षीर सरिता जैसी दीपां परिमित बोलती और भोजन तथा पानी का पूर्ण संयम रखती थी। पृथ्वी की भांति धीर वह दीपां समस्त प्रयोजन को सिद्ध करने वाले प्रस्फुटित कल्पवृक्ष के अंकुर के समान अपने गर्भ की रक्षा करने लगी।
३७. लग्ने तमः सुरगुरू च कविस्तृतीये,
यत् पञ्चमे बुधरवी महिजश्च षष्ठे। केतुश्च सप्तमगतो दशमे शशाङ्कः, एकादशे शनिरजायत मीनलग्ने ॥
गर्भ की स्थिति पूर्ण होने पर दीपां ने पुत्ररत्न का प्रसव किया। उस बालक के ग्रहों की स्थिति इह प्रकार थी-मीन लग्न, लग्न में राहु और गुरु, तीसरे घर में शुक्र, पांचवें घर में बुध और सूर्य, छठे घर में मंगल, सातवें घर में केतु, दसवें घर में चन्द्रमा, ग्यारहवें घर में शनि ।
१. शीतरुचिः-चन्द्रमा । २. तमः-राहु (तमो राहुः सैहिकेयो...-अभि० २।३५)