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54 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
सड़क के किनारे बने चर्च की पिछली दीवार के पास है। दोनों का अहाता साथ-साथ लगता है। इसी के पास प्राइमरी हेल्थ सेण्टर भी है। भारतीय पुरातत्त्व विभाग के संरक्षण में होते हुए भी इस मन्दिर तक पहुँचने के लिए पक्का मार्ग नहीं है । यह है तो सड़क से लगभग दो सौ गज की दूरी पर ही किन्तु पक्का मार्ग तो होना ही चाहिए। जैन मन्दिर का अहाता काफी बड़ा है और उसमें ईंटों के किसी भवन के खण्डहर हैं तथा एक पक्की गहरी बावड़ी भी है।
राष्ट्रकूट शासकों ने अपने शासन-काल में दो महत्त्वपूर्ण मन्दिरों का निर्माण करवाया। एक तो एलौरा का कैलाश नामक मन्दिर और दूसरा पट्टदकल का जैन मन्दिर ।
विद्वानों का अनुमान है कि पट्टदकल का जैन मन्दिर आठवीं सदी के अन्तिम चतुर्थांश
में निर्मित हुआ होगा।
___ यह मन्दिर अच्छे बलुआ पत्थर से निर्मित है। इस मन्दिर का अधिष्ठान (चौकी) अपेक्षाकृत कम ऊँचाई का है । यह विशाल मन्दिर चौकोर वर्गाकार है। इसका शिखर भी इसी प्रकार का है। इस कारण इसको गणना दक्षिण भारतीय शैली के मन्दिरों में की जाती है।
मन्दिर का मुखमण्डप या प्रवेश-मण्डप अनेक स्तम्भों से निर्मित है । ये स्तम्भ भी बलुआ पत्थर के हैं। ये तीन ओर बने हैं और मन्दिर को भव्यता प्रदान करते हैं। इनकी गोल कटाई और इन पर उत्कीर्ण मोतियों की मालाएँ आकर्षक हैं। अब यह मन्दिर ध्वस्त अवस्था में है। इसके मुखमण्डप के कुछ भाग पर छत भी नहीं है।
मुख-मण्डप के बाद नवरंग-मण्डप है। इसके प्रवेश-द्वार पर दोनों ओर दो विशालकाय हाथी बने हैं। ये ही इस मन्दिर की सबसे बड़ी विशेषता हैं । हाथियों का ऐसा सुन्दर अंकन कर्नाटक में शायद कहीं नहीं है । ये हाथी आठ-नौ फुट ऊँचे हैं, उन पर महावत आसीन हैं, उनकी सूंड में माला और नारियल हैं।
प्रवेश-द्वार सप्तशाखायुक्त जान पड़ता है। उसमें सबसे नीचे पूर्ण कुम्भ का उत्कीर्णन है।
नवरंग मण्डप के स्तम्भ लगभग चार फुट चौड़े हैं। उनकी सुन्दर ढंग से गोल और चौकोर कटाई की गई है। यह मण्डप आवृत है, खुला नहीं है । इसे अन्तराल के माध्यम से विमान वाले भाग से जोड़ दिया गया है। इस अन्तराल के नासिकानों पर पद्मासन में तीर्थंकर एवं अन्य मूर्तियाँ हैं।
गर्भगृह का द्वार नौ शाखा वाला है । उसके सिरदल पर मकरतोरण तथा पत्रावली उत्कीर्ण हैं । गर्भगृह के द्वार के पास दोनों ओर खुला रास्ता है।
गर्भगृह में अब कोई मूर्ति नहीं है। केवल गोल-सा एक पत्थर गड़ा है । सम्भवतः इस पर मूर्ति विराजमान रही होगी।
नीचे जो गर्भगृह है उसी के ऊपर (दूसरी मंजिल पर) एक छोटा गर्भगृह है जो वर्गाकार शिखर जैसा दिखाई देता है। ऊपर जाने के लिए मुखमण्डप में एक लम्बी शिला टेढ़ी रखी हुई है। उसे ही काट कर सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। ऊपर के गर्भगह की भित्तियाँ नीचे की अन्तः भित्तियों को ही ऊपर तक ले जाकर बनाई गई हैं।
कुल मिलाकर यह मन्दिर भी वास्तुकला का एक विशेष उदाहरण है। इसके दो हाथी ही इसकी उत्कृष्टता के लिए पर्याप्त हैं।
वर्तमान में यह मन्दिर पुरातत्त्व विभाग के संरक्षण में है, यहाँ पूजन नहीं होती।