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220 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
संस्कृत का यह 'कटवप्र' नाम यहाँ के कई अन्य शिलालेखों में 'कळवप्पु', 'कल्पवप्प', 'कलवप्पि', 'कल्पवप्पबेट्ट' और 'कटवप्रगिरि' उत्कीर्ण किया गया है ।
अनेक मुनियों आदि द्वारा यहाँ तपश्चरण एवं समाधिमरण के कारण ही कुछ शिलालेखों में चन्द्रगिरि को 'ऋषिगिरि' तथा 'तीर्थ गिरि' के नाम से भी उल्लिखित किया गया है। चूँकि सम्राट् चन्द्रगुप्त ने यहाँ अपने अन्तिम दिन बिताए थे, इसलिए यह पर्वत 'चन्द्रगिरि' भी कहलाया । आज तो इस पर्वत का यह नाम ही सबसे अधिक प्रचलित है।
वैसे यह पूरा क्षेत्र 'बेळगोळ' के नाम से ही अधिकतर प्रसिद्ध रहा है लेकिन शिलालेखों में इस नाम के उच्चारण में बहुत भिन्नता रही है । इस स्थान का एक अन्य नाम 'देवर बेळगोळ' (देवों का बेलगोल अर्थात् जिनेन्द्र भगवान का बेलगोल) भी है ।
शिलालेखों की भाषा- रचना करने वाले पण्डित या कवि हुए ही हैं । इसलिए उन्होंने बेलगोल (श्वेत सरोवर) के पर्यायवाची शब्दों का भी नाम के रूप में प्रयोग किया है । जैसे 'श्वेत सरोवर', 'धवल सरस', 'धवल सरोवर', 'शुक्ल तीर्थ' या 'धवलतीर्थ' आदि ।
युग
जब तीर्थ की परम्परा चली तो उत्तर भारत के यात्रियों के लिए श्रवणबेलगोल का एक नाम 'जैनबद्री' भी प्रचलित हो गया । श्रवणबेलगोल की एक और विशेषता प्राचीन में शिक्षा और अध्ययन के केन्द्र के रूप में भी थी । उत्तर भारत में आज भी वाराणसी (या काशी) को शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र माना जाता है । इसी प्रकार दक्षिण में स्थित विद्या के केन्द्र इस श्रवणबेलगोल को 'दक्षिण काशी' भी शिलालेखों में कहा गया है ।
अतिशय क्षेत्र
श्रवणबेलगोल एक अतिशय क्षेत्र भी है। इस पवित्र भूमि में समय-समय पर अनेक चमत्कार या अतिशय हुए हैं
( 1 ) चन्द्रगिरि पर पारनाथ बसदि के उत्तरमुख एक स्तम्भ पर शक संवत् 1050 का एक शिलालेख है । उसमें महावीर स्वामी और गौतम गणधर का स्मरण कर, आचार्य भद्रबाहु की महिमा बताकर यह कहा गया है कि उनके शिष्य चन्द्रगुप्त की वन-देवता भी सेवा किया करते थे (चन्द्रगुप्तश्शुश्रूयष्यते स्म सुचिरं वन- देवताभिः) ।
जनश्रुति है कि तब निर्जन चन्द्रगिरि - विन्ध्यगिरि पहाड़ियों के आसपास का क्षेत्र आबाद नहीं था या बहुत कम आबादी वाला रहा होगा । किन्तु बारह हज़ार मुनियों के संघ को भक्ति पूर्वक आहार देने के लिए यहाँ देवताओं ने एक नगर का ही निर्माण कर डाला था । इसका पता उस समय लगा जबकि समस्त मुनिसंघ सुदूर दक्षिण के लिए प्रस्थान कर गया और केवल आचार्य भद्रबाहु तथा प्रभाचन्द्र ( चन्द्रगुप्त ) मुनि ही वहाँ रह गए । सदा की भाँति मुनि प्रभाचन्द्र एक दिन जब आहार के लिए गये तो अपना कमण्डलु नगर में ही भूल आए । जब वे लौटकर उसी स्थान पर गये तो उन्हें वहाँ कोई आबादी दिखाई नहीं दी । अपना कमण्डलु उन्हें अवश्य एक सूखे पेड़ की टहनी पर टँगा दिखा । आचार्य ने उन्हें बताया कि आहार की व्यवस्था सम्भवतः देवों ने की थी। चूँकि मुनि के लिए राजपिण्ड ( राजा के यहाँ का भोजन), देवपिण्ड ( देवताओं द्वारा प्रदत्त भोजन) लेना निषेध है, इसलिए मुनि प्रभाचन्द्र ने उस दिन प्रायश्चित्त