Book Title: Bharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Author(s): Rajmal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 351
________________ श्रवणबेलगोल | 255 एक श्लोक से ज्ञात होता है कि इसकी प्रतिष्ठा कल्कि संवत् 600 में, चैत्र शुक्ल पंचमी को कराई गयी थी। इस तिथि और संवत् को लेकर भी विद्वानों ने भिन्न-भिन्न कालों का निर्धारण किया है। किन्तु अब अधिकांश विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि इस महामूर्ति की प्रतिष्ठा 13 मार्च 981 ई. को हुई थी। उस दिन चैत्र शुक्ल पंचमी, रविवार, मृगशिरा नक्षत्र, कुम्भ लग्न, सौभाग्य योग और विभव संवत्सर तथा कल्कि संवत् 601 था। प्रतिष्ठा के 1000 वर्ष पूरे होने पर वर्ष 1981 ईस्वी में इसी तिथि को आधार मानकर ही सहस्राब्दी महामस्तकाभिषेक का आयोजन बहुत विशाल स्तर पर किया गया था। नामकरण-आचार्य जिनसेन (द्वितीय) के जिस 'आदिपुराण' में वर्णित भरत-बाहुबली आख्यान को सुनकर चामुण्डराय की माता काललदेवी को बाहुबली की प्राचीन मूर्ति के दर्शन की इच्छा हुई और जिसका अन्तिम परिणाम श्रवणबेलगोल में बाहुबली की मूर्ति का निर्माण हुआ, उस महाग्रन्थ में बाहुबली नाम के अतिरिक्त "भुजबली' और 'दोर्बली' भी पाये जाते हैं। किन्तु यहाँ की एवं कर्नाटक के अन्य स्थानों की मूर्तियां गोमटेश्वर के रूप में ही प्रसिद्ध हुईं। यह ऐतिहासिक नाम स्वयं चामुण्डराय के समय से ही प्रचलित हुआ है। या फिर कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि बोप्पण के 1180 ई. के उस शिलालेख के बाद प्रचलित हुआ जो गोमटेश्वर-द्वार के बाईं ओर एक पाषाण पर उत्कीर्ण है। इसमें कवि ने 'गोम्मट जिन', 'गोम्मटेश्वर' आदि के अतिरिक्त 'बाहुबली' और 'दक्षिण कुक्कटेश' नामों का भी प्रयोग किया है। संभवत: इसी के साथ चामुण्डराय का एक नाम 'गोम्मट' या 'गोम्मटराय' और श्रवणबेलगोल का 'गोम्मटपुर' नाम भी प्रचलित हो गया। चामुण्डराय के गुरु आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने 'गोमटेस थुदि' और 'गोम्मटसार' की रचना की है। आचार्यश्री ने 'गोम्मटसार' ग्रन्थ के विषय में स्पष्ट लिखा है कि उन्होंने सिद्धान्तसागर का मंथन करके अपना यह 'गोम्मटसंग्रहसूत्र' उन गोम्मटराय के हितार्थ रचा है जिनके गुरु आर्यसेन के शिष्य भुवनगुरु अजितसेनाचार्य थे और जिन्होंने 'गोम्मटगिरि' (चन्द्रगिरि) के शिखर पर गोम्मटसंग्रह-जिन अर्थात् नेमिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी तथा महाकाय 'दक्षिणकुक्कुटजिन' (विन्ध्यगिरि पर भगवान बाहुबली) की भी स्थापना की थी। इस ग्रन्थ के कर्मकाण्ड भाग के अन्त में वह लिखते हैं “गोम्मटसंग्रहसुत्तं गोम्मटसिहरुवरि गोम्मटजिणो य । गोम्मटरायविणिम्मिय-दक्खिणकुक्कुडजिणो जयदु ॥ 968 ॥" अर्थात् यह गोम्मटसार संग्रह गोम्मटराय द्वारा गोम्मटगिरि पर बनवाई गयी गोम्मटजिन प्रतिमा (इन्द्रनीलमणि की नेमिनाथ की प्रतिमा) तथा उन्हीं के द्वारा ही बनवाई गयी 'दक्षिण-कुक्कुटेश्वर' (भगवान बाहुबली) की प्रतिमा जयवन्त हो। इस महामूर्ति का निर्माण एक ही पत्थर से हुआ है। न तो यह मूर्ति कहीं बाहर से बनवाकर स्थापित की गयी है और न ही इसके विभिन्न अंगों को आपस में जोड़कर इस महान् शिल्प का निर्माण किया गया है। वास्तव में यह एक ही ठोस, चिकनी, सुदृढ़ और दोषरहित अखण्ड ग्रेनाइट शिला को छैनी से तराशकर बनाई गयी है।

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