Book Title: Bharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Author(s): Rajmal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

View full book text
Previous | Next

Page 361
________________ श्रवणबेलगोल | 257 सात मस्तकाभिषेक सम्पन्न कराये थे। बाद के 600 वर्षों में भी कुछ महामस्तकाभिषेकों का प्रमुखता से उल्लेख है। 1871 ई. तक अनेक मस्तकाभिषेकों के बाद निम्नलिखित मस्तकाभिषेक बड़े पैमाने पर आयोजित किये गये : (1) 1887 ई. में कोल्हापुर के भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन द्वारा, 1910 तथा 1925 में दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी द्वारा, 1940 तथा 1953 में मैसूर राज्य शासन द्वारा। इसके बाद 1967 में कर्नाटक शासन और श्रवणबेलगोल दिगम्बर जैन इंस्टीट्यूशन्स मैनेजिंग कमेटी द्वारा इस अभिषेक का विशाल स्तर पर आयोजन किया गया । अन्त में महामूर्ति की प्रतिष्ठा के एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर, 1981 ई. में उक्त मैनेजिंग कमेटी के तत्त्वावधान में 'अखिल भारतीय भगवान बाहुबली प्रतिष्ठापना सहस्राब्दी महोत्सव एवं महामस्तकाभिषेक महोत्सव समिति' द्वारा अभिषेक का जो आयोजन हुआ था उस अवसर पर इस विशाल मूर्ति को संसार के अनेक देशों में अच्छी ख्याति प्राप्त हुई। जर्मनी में अभिषेक की फ़िल्म दिखाई गयी। न केवल भारत के, अपितु अमेरिका आदि देशों के पत्रकारों, छायाकारों ने भी इसकी छवियाँ प्रकाशित-प्रसारित की। पिछले एक हजार वर्षों में अनेक राजा-महाराजाओं ने श्रवणबेलगोल और उसके आसपास के प्रदेशों पर राज्य किया या आक्रमण किया। उनमें से कुछ धर्मद्वेषी भी थे, मूर्तिभंजक भी थे । उन्होंने नगर उजाड़ दिये, कुछेक मन्दिर भी नष्ट या अपवित्र किये, तबाही मचायी । वे श्रवणबेलगोल तक भी पहुँचे, किन्तु उनका विध्वंसक हाथ इस मूर्ति की ओर नहीं बढ़ा, और न ही उन्होंने इस नगर तथा यहाँ के मन्दिरों को नुकसान पहुँचाया। इसे इस महामूर्ति का विस्मयकारी प्रभाव ही माना जाय। नये वर्ष के दिन गोमटेश्वर का दर्शन-भारतीय पंचांग के अनुसार चैत्र मास वर्ष का पहला महीना होता है। इस मास के पहले दिन गोमटेश्वर मूर्ति का सबसे पहले दर्शन करने के लिए बहुत से लोग विन्ध्यगिरि पर रात्रि में ही आ जाते हैं और सुबह 4 बजे उठकर, घण्टा बजाकर भगवान बाहुबली का दर्शन करते हैं। भगवान के शुभ दर्शन के बाद ही उस दिन वे अपने सांसारिक कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। चन्द्रगिरि श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य की तपस्या और सल्लेखनाविधि द्वारा इस छोटी पहाड़ी (चिक्कबेट्ट) पर शरीर त्यागने से यह स्थल एक तीर्थ बन गया । मुनिवर और सम्राट का अनुकरण करते हुए समाधिमरण के लिए पवित्र स्थान के रूप में यह पहाड़ी इतनी प्रसिद्ध हई कि यहाँ के सबसे प्रचीन 600 ई. के शिलालेख में इसे 'कटवप्र' या कलवप्पू (समाधिशिखर), तीर्थगिरि एवं ऋषिगिरि ही कहा गया। इसी शिलालेख में यह भी उल्लेख है कि आचार्य भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त (प्रभाचन्द्र) के बाद, इस पहाड़ी पर सात सौ अन्य मुनियों ने कालान्तर में समाधिमरण किया था। उसके बाद के सल्लेखना-विधि से शरीरत्याग के तो यहाँ इतने शिलालेख और चरण हैं कि आश्चर्य होता है। इस प्रकार यह पहाड़ी एक पवित्र तपोभूमि के रूप में प्रसिद्ध रही है। जो भी हो, सम्राट चन्द्रगुप्त के नाम पर यह पहाड़ी पिछले 2 300 वर्षों से 'चन्द्रगिरि' ही कहलाती है । (प्रसंगवश, यह भी उल्लेख किया जाता है कि एक चन्द्रगिरि और

Loading...

Page Navigation
1 ... 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424