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266 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
तोड़कर अँधेरा दूर कर दिया गया है और प्रदक्षिणा-पथ में भी झरोखा लगा दिया गया है) सम्भवतः इससे सटी 'चन्द्रगुप्त बसदि' में पद्मावती की प्रतिमा के कारण इसे पद्मावती बसदि भी कहा जाता है। मन्दिर पर शिखर नहीं है किन्त स्थानीय जैन मठ में इसके नक्शे में शिखर भी दिखाया गया है। इसमें ऊपर का खण्ड भी है किन्तु जीर्ण होने के कारण अब बन्द कर दिया गया है। बताया जाता है मस्तकाभिषेक के समय वहाँ महिलाओं के बैठने का प्रबन्ध रहता था। डॉ. हीरालाल जी जैन द्वारा 1928 में संग्रहीत 'जैन शिलालेख संग्रह' भाग-1 में उल्लेख है कि इस बसदि की ऊपरी मंजिल में आदीश्वर की मूर्ति के सिंहपीठ पर 1118 ई. का एक लेख है जिसके अनुसार दण्डनायक गंगय्य ने अपनी माता पोचब्बे के लिए इस बसदि का निर्माण कराया था। इसी प्रकार मैसूर राजकुल की दो महिलाओं-देवीरम्मणि और केम्पमण्णि ने 1858 ई. के लगभग इसका जीर्णोद्धार कराया था। पुरातत्त्वविद् श्री के. वी. सौंदर राजन् ने 'जैन कला एवं स्थापत्य' में एक और नया तथ्य हमारे सामने रखा है। उनका कथन है, “कृष्णवर्ण के पाषाण से निर्मित होने के कारण 'कत्तले बसदि' के नाम से प्रसिद्ध यह मन्दिर चन्द्रगिरि पर सबसे बड़ा मन्दिर है। कहीं, ऐसा तो नहीं कि यह मन्दिर काले पत्थर के कारण भी कत्तले बसदि कहलाया। इसी प्रकार श्री शेट्टर (श्रवणबेलगोल) ने लिखा है, "कत्तले बसदि या अँधेरी बसदि को इतना बदला या परिवर्तित किया गया कि ज्यादा-कम उसके मूल अभिलक्षण खो गये हैं।"
चन्द्रगुप्त बसदि-यदि इस बसदि को एक पृथक् मन्दिर माना जाए तो चन्द्रगिरि पर यह सबसे छोटा मन्दिर कहा जा सकता है-मात्र 22 फुट लम्बा और 16 फुट चौड़ा । इसके गर्भगृह में पार्श्वनाथ की मूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रा में नौ फणों की छाया में कमलासन पर प्रतिष्ठित है। उनके बायीं ओर पद्मावती की और दाहिनी ओर कूष्माण्डिनी देवी की प्रतिमाएं हैं। इस प्रकार यहाँ तीन छोटे गर्भगृह कहे जा सकते हैं । गलियारे में धरणेन्द्र और पद्मावती की मूर्तियाँ हैं । इस मन्दिर के प्रवेशमण्डप के द्वार की चौखट पर बहुत सुन्दर उत्कीर्णन है। उसके दोनों ओर पत्थरों की जाली या जालरन्ध्र हैं। इसमें एक ओर पैंतालीस तथा दूसरी ओर पैंतालीस इस प्रकार कूल 90 पाषाण-चित्र हैं जिनमें गोवर्धनाचार्य, श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य की दक्षिण-यात्रा से सम्बन्धित सेलखड़ी चित्र (देखें चित्र क्र. 98) बने हुए हैं जिनका धार्मिक एवं ऐतिहासिक बड़ा महत्त्व है । 'अन्तर्द्वन्द्वों के पार : गोम्मटेश्वर बाहुबली' के लेखक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने श्रवणबेलगोल के भट्टारक चारुकीति जी की सहायता से इनका पूरा विवरण क्रमबद्ध रूप से अपनी उपर्युक्त पुस्तक में दिया है। ये चित्र दासोज नाम के शिल्पी ने बारहवीं सदी में लगभग 1146 ई. में उत्कीर्ण किए गये थे। चित्रों की योजना भी वैज्ञानिक है। एक आयताकार चित्र के बाद लगभग वर्गाकार स्थान छोड़ा गया है ताकि हवा और रोशनी आ सके । बाहर से मन्दिर द्रविड़ शैली का है और उस पर गुम्बज जैसा शिखर भी है।
वर्तमान में यह मन्दिर भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अन्तर्गत एक संरक्षित स्मारक है।
मन्दिर की प्राचीनता के बारे में पुरातत्त्वविद् श्री के. आर. श्रीनिवासन ने 'जैन कला एवं स्थापत्य' (खण्ड-2) हिन्दी संस्करण में लिखा है, "दक्षिण के सम्पूर्ण प्रस्तर निर्मित प्राचीन मन्दिरों में सर्वाधिक प्राचीन विद्यमान जैन मन्दिरों के रूप में तीन साधारण विमान-मन्दिरों का