Book Title: Bharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Author(s): Rajmal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 372
________________ 268 | भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) जिसमें श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य (मुनि प्रभाचन्द्र) के कटवप्र पर्वत पर तपस्या का उल्लेख है। इरुवे ब्रह्मदेव मन्दिर-चन्द्रगिरि मन्दिरों के परकोटे से बाहर उत्तर में स्थित इस मन्दिर में ब्रह्मदेव की मूर्ति प्रतिष्ठापित है। अनुमान है कि इसका निर्माण दसवीं शताब्दी में हुआ होगा। इसके सामने की चट्टान पर हाथी, घोड़े, जिनप्रतिमाएँ आदि उत्कीर्ण हैं। ऐसा विश्वास है कि ब्रह्मदेव की मनौती करने पर चीटियों का उपद्रव नहीं होता। यदि उपद्रव होता भी है तो ब्रह्मदेव की पूजा करने से शान्त हो जाता है। भद्रबाहु गुफा और चरण- मन्दिरों के परकोटे से बाहर आने पर बायीं ओर भद्रबाहु गफा के सामने का द्वार दिखाई देता है। यह द्वार 17वीं सदी में बनवाया गया, ऐसा अनुमान किया जाता है। गुफा के दाहिनी ओर की एक शिला पर एक कायोत्सर्ग तीर्थंकर प्रतिमा छत्रत्रयी से युक्त, उसी प्रकार छत्रत्रयी युक्त पद्मासन तीर्थंकर तथा दो अस्पष्ट आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। यहाँ जो शिलालेख है वह घिस गया जान पड़ता है। गुफा के मुखमण्डप के स्तम्भों पर लगभग 15 इंच के दो द्वारपाल बने हैं । गुफा प्राकृतिक है। उसके पीछे की शिला नीची है या हो गई है। - अनुश्रुति है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु ने यहीं तपस्या की और समाधिमरण किया तथा यहीं चन्द्रगप्त मौर्य ने उनकी सेवा की, तपस्या की और शरीर त्यागा । यहाँ श्रुतकेवली के कुछ बड़े चरण कमल के घेरे में बने हैं (देखें चित्र क्र. 101) । चरणों के घेरे के बाहर एक और घेरा है। एक छोटी-सी नाली भी है। उसमें चन्दन आदि का प्रक्षाल का पानी आता है और मस्तक पर लगाया जाता है । अन्दर शिला नीची होती गई है इसलिए झुककर वन्दना करना होती है तथा गन्धोदक लेना होता है। यहाँ आप देखेंगे कि गुफा को दीवाल या शिला पर चन्दन की अनेक बिन्दियाँ लगी हैं जो कि जैन या जैनेतर लोगों द्वारा अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए अड़तालीस दिनों तक दर्शन का व्रत लेने वाले लगा जाते हैं। इन 48 दिनों में मनोकामना पूर्ण होती है, ऐसा विश्वास है। इसमें सन्देह नहीं कि यह प्राकृतिक गुफा अत्यन्त प्राचीन है। उसके प्रवेश-मण्डप आदि का जीर्णोद्धार अवश्य हुआ है। इस गुफा में 1110 ई. का एक लेख था जिसका आशय था 'जिनचन्द्र ने भद्रबाहु के चरणों में प्रणाम किया' ('श्रीभद्रबाहु स्वामिय पादमं जिनचन्द्र प्रणमतां' नागरी में)। मलयाली ने तीर चलाया-परकोटे के बाहर तालाब की उत्तर की चट्टान पर लगभग 1246 ई. का शिलालेख है कि मलयाल अध्याडि नायक ने विन्ध्यगिरि से चन्द्रगिरि का निशाना लगाया। इसी प्रकार भद्रबाहु गुफा के पास की एक चट्टान पर उल्लेख है कि मळयाळ कोदयु शंकर ने इमली के वृक्ष के समीप की तीन शिलाओं पर बाण चलाए (बारहवीं सदी)। कंचिन दोणे-यह एक कुण्ड का नाम है जो कि इरुवेदेव मन्दिर के बायीं ओर है। दोणे का अर्थ है 'प्राकृतिक कुण्ड' और कंचिन से आशय है 'कांसा' । इस कुण्ड का यह नाम क्यों पड़ा यह ज्ञात नहीं है । यहाँ अनेक लेख हैं। एक शिलालेख में यह उल्लेख है कि कदम्ब की आज्ञा से तीन शिलाएँ यहाँ लाई गई जिनमें से एक टूट गई और दो विद्यमान हैं। मानभ नाम के किसी व्यक्ति

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