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226 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
किए बिना वह सम्पूर्ण पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकते । मैं अपने अधिकार की रक्षा के लिए युद्ध का निमन्त्रण देता हूँ।" और वह भुजबली (बाहुबली) मदोन्मत्त हाथियों एवं अन्य सेना के साथ पहले ही रणभूमि में जा पहुँचे । अहिंसक युद्ध और बाहुबली को वैराग्य
दूत के वापस लौटने पर अयोध्या में भी नगाड़े बज उठे। पैदल, घोड़े, हाथी, रथ, विद्याधर और देव इस तरह छह प्रकार की सेना. अन्य राजाओं की सेना तथा चक्ररत्न के साथ पहुँच गई। दोनों ओर से व्यह की रचना हुई।
भरत और बाहुबली भी आमने-सामने आ खड़े हुए। उस समय दोनों ऐसे लगते थे मानो दो सिंह आमने-सामने खड़े हों।
युद्धस्थल का वातावरण बड़ा भयावना था। दोनों ओर के वृद्ध मन्त्रियों के चेहरों पर अनेक प्रकार के भाव आ-जा रहे थे। उन्होंने अपने स्वामियों से आज्ञा लेकर आपस में विचारविमर्श किया। अपने-अपने स्वामियों के पराक्रम की प्रशंसा कर चुकने के बाद सबकी राय अन्त में इसप्रकार बनी–“यह युद्ध न तो प्रजा के कल्याण के लिए है और न ही सेवकों की भलाई के लिए । शान्ति भी इस युद्ध का ध्येय नहीं है । केवल दो भाइयों के मान-स्वाभिमान का प्रश्न है। दोनों के बल की परीक्षा अन्य प्रकार से भी हो सकती है। क्यों न ये दोनों ही दृष्टियुद्ध, जलयद्ध और मल्लयद्ध द्वारा अपनी श्रेष्ठता का निर्णय कर लें ! सेनाओं के युद्ध में भारी नर-संहार क्यों हो?" मन्त्रियों ने शान्तिपूर्वक दोनों भाइयों को समझाया कि उक्त तीन प्रकार के युद्ध आपस में कर हार-जीत का फैसला कर लें। बड़ी कठिनाई से भरत और बाहुबली मन्त्रियों के इस प्रस्ताव पर सहमत हुए। सहमति प्राप्त होते ही मन्त्रियों ने धर्मयुद्ध की घोषणा कर दी। निर्णायक नियुक्त कर दिए गए।
* आरम्भ के दोनों दृष्टियुद्ध और जलयुद्ध में बाहुबली की विजय हुई । अन्त में मल्लयुद्ध की घोषणा हुई। बाहुबली की अतुलित बलशाली भुजाओं ने भरत को ऊपर उठाकर. चारों दिशाओं में घुमाकर, धरती पर पछाड़ना चाहा कि तभी उन्हें एकाएक इस धरा की निरर्थकता का बोध हो आया। उन्होंने भरत को धीरे से उतारा और सम्मान सहित धरती पर खड़ा कर दिया।
बाहुबली से तीनों युद्धों में पराजित भरत लज्जा से गड़ गये, किन्तु दूसरे ही क्षण कुचले हुए फणवाले क्रुद्ध भुंजग की तरह वे प्रतिहिंसा से उबल पड़े। क्रोध के आवेश में विवेक तिरोहित हो गया। उन्होंने बाहुबली पर अमोघ चक्र चला दिया। उस समय उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि स्वतः संचालित यह चक्र बन्धु-बान्धवों का घात नहीं करता। वह यह भूल ही गए कि उनका यह अनुज मोक्षगामी शलाकापुरुष है, ऐसे उत्तम शरीर का असमय अवसान कर दे, काल में ऐसी सामर्थ्य कहाँ। परिणाम यह हआ कि चक्र बाहबली की परिक्रमा कर वापस आ गया।
चक्र के लौटते ही भरत की स्वाभाविक चेतना लौट आई। क्रोध के स्थान पर अब पश्चात्ताप की भावना से उनका मन अभिभूत हो उठा । अपने इस कुकृत्य के लिए वे क्षमायाचना हेतु दो पग बढ़कर बाहुबली के समक्ष नतमस्तक खड़े हो गए।
इधर बाहुबली का कोमल हृदय भरत के मनस्ताप से द्रवित हो उठा। शान्त मन से