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श्रवणबेलगोल | 227
उन्होंने भरत को सम्बोधन दिया-"तुम्हारा कुछ दोष नहीं, भैया। कषाय का उद्रेक ऐसा ही दुनिवार होता है। परिग्रह की लिप्सा अनर्थों की जड़ है। पर-स्वामित्व की लालसा ही हमारी परतन्त्रता है। हमें परतन्त्रता का यह दुखद बन्धन तोड़ना ही होगा। हमने राज्य त्याग कर दीक्षा लेने का निर्णय ले लिया है। हमारे कारण तुम्हें इतना संक्लेश हुआ, इस अपराध के लिए हमें क्षमा कर देना । तुम्हारे चक्र को आयुधशाला तक जाने में अब कोई बाधा नहीं होगी। अयोध्या का सिंहासन अपने स्वामी की प्रतीक्षा कर रहा है।” (गोमटेश गाथा)
अन्त में सभी बन्धु-बान्धवों को सम्बोधित कर शान्त-गम्भीर योगीश बाहुबली ने नीची दृष्टि किए मन्द गति से वन की ओर पग बढ़ा दिए। - मुनि-दीक्षा लेकर बाहुबली कठोर तपश्चरण में लीन हो गए। एक वर्ष का प्रतिमा-योग धारण कर वे ध्यान मुद्रा में खड़े गए। उनके चरणों में साँपों ने बाँबियाँ बना लीं। उनकी देह पर लताएँ चढ़ आईं, पर वे इन सबसे विचलित नहीं हुए। लेकिन जब कभी उनके अन्तस् में एक हल्की-सी टीस-'मैं भरत के संक्लेश का कारण बना'-उठती थी जो उनके केवलज्ञान के उत्पन्न होने में बाधक हो रही थी।
अन्त में जब भरत अपनी दोनों बहनों ब्राह्मी और सुन्दरी के साथ वन में बाहुबली के दर्शन करने के लिए पहुँचे और सविनय वन्दना कर सम्बोधित किया कि तभी बाहुबली की वह टीस एकाएक तिरोहित हो गई और उन्हें केवलज्ञान हो गया।
बाहुबली ने पृथ्वी पर विहार कर संसार को अपने वचन-रूपी अमृत से धन्य किया और अन्त में कैलाश पर्वत से ही, ऋषभदेव से भी पहले, निर्वाण-लाभ किया। बाहुबली की स्मृति-परम्परा
अत्यन्त प्राचीन काल से बाहुबली की स्मृति परम्परा में इसलिए सुरक्षित नहीं बनी रही कि उन्होंने अपने शारीरिक बल के आधार पर एक बलवान् चक्रवर्ती पर विजय प्राप्त की, बल्कि इसलिए कि उन्होंने राजलक्ष्मी से शिवलक्ष्मी (मोक्ष की प्राप्ति) को अधिक उचित माना था। अपने स्वाभिमान और स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए उन्होंने सब कुछ घास के तिनके की तरह तुच्छ समझकर त्याग दिया। उस भुजबली ने अपनी वीरता प्रदर्शित करके यह भी सिद्ध कर दिया कि 'क्षमा वीरस्य भूषणम्' अर्थात् केवल वीर, सामर्थ्यवान क्षमा कर सकता है। शायद इसी कारण, विशेषकर कर्नाटक में राजाओं, सेनापतियों ने उनकी बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं स्थापित कराई।
आचार्य भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य श्रवणबेलगोल का ऐतिहासिक परिचय आचार्य भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के चन्द्रगिरि पर आगमन, तपस्या और समाधि से प्रारम्भ होता है।
भगवान महावीर के प्रमुख श्रोता/श्रेणिक बिम्बिसार राजगृह में राज्य करते थे। उनके पुत्र अजातशत्रु ने राज्य का विस्तार किया। उसके पुत्र उदायि ने कुसुमपुर (आधुनिक पटना) को राजधानी बनाया। उनके शिशुनाक वंश का अन्त करनेवाले नन्दवंश के राजाओं का शासन