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230 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
छप्पर में अपने हाथ से आड़ कर चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को थाली में कम करता जाए । गर्भवती समझी उसने चन्द्रपान कर लिया है। जब उसके पुत्र उत्पन्न हुआ तो उसका नाम चन्द्रगुप्त रखा गया। चाणक्य ने चन्द्रपान की शर्त यह रखी थी कि अगर पुत्र होगा तो वह उनके सुपुर्द कर दिया जायेगा ।
उपर्युक्त घटना को आठ-दस वर्ष बीत गये । इस अवधि में चाणक्य धन-संग्रह करते रहे ताकि नन्दवंश को नष्ट किया जा सके। एक दिन वे पिप्पलीवन में आ निकले। वहाँ उन्होंने बच्चों को 'राजकीलम्' नामक खेल खेलते देखा । एक बालक राजा बना हुआ था और न्याय कर रहा था | चाणक्य ने बालक राजा से दान माँगा । राजा ने कहा, “ सामने जितनी गाय चर रही हैं, उन्हें ले जाओ ।" चाणक्य ने बालक राजा से कहा, “किन्तु ये तो आपकी नहीं हैं। मुझे दण्ड मिलेगा ।" राजा ने तुरन्त उत्तर दिया, "यह दान राजा चन्द्रगुप्त ने किया है । इस पर कोई आपत्ति नहीं कर सकता ।" खोजबीन करने पर चाणक्य को पता चला कि यह तो क्षत्रिय मुखिया की उसी पुत्री का पुत्र है जिसका दोहद उन्होंने पूरा किया था । उन्होंने निश्चय किया कि वे इसे नन्दवंश के नाश का साधन बनाएँगे । चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को हर प्रकार की शिक्षा दी । कुछ ग्रंथों के अनुसार, चाणक्य ही स्वयं विद्याभ्यास के लिए पाटलिपुत्र आये थे, क्योंकि नन्द राजाओं के समय में वह नगर 'सरस्वती और लक्ष्मी का निवास' था। जो भी हो, चाणक्य ने चन्द्रगुप्त शिक्षा का विशेष प्रयत्न उसमें राजा के लक्षण देखकर किया था, ऐसा जान पड़ता है ।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने अनेक महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त की । उन्होंने लगभग 25 वर्ष ( 322 ई. पू. से 297 ई. पू. तक) राज्य किया और उसके बाद राजसिंहासन अपने पुत्र बिन्दुसार को छोड़ा तो श्रवणबेलगोल से सदा के लिए उनका नाता जुड़ गया ।
जन परम्पराः चन्द्रगुप्त की मुनि दीक्षा और श्रवणबेलगोल में समाधिमरण
संस्कृत और कन्नड़ जैन ग्रन्थों, श्रवणबेलगोल तथा श्रीरंगपट्टन के शिलालेखों में स्पष्ट कथन है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य दिगम्बर जैन मुनि हो गये थे और श्रवणबेलगोल में तप करते हुए उन्होंने स्वेच्छा से अपना शरीर त्यागा था अर्थात् समाधिमरण किया था। उनके वैराग्य के सम्बन्ध में जैन अनुश्रुति संक्षेप में इस प्रकार है
आचार्य भद्रबाहु एक दिन उज्जयिनी में आहार के लिए निकले । जब एक दिन सूने घर के सामने वे पहुँचे तो एक बालक ने उनसे कहा, "जाओ, जाओ ।" इस पर आचार्य ने उससे पूछा, "कितने दिनों के लिए ?" बालक ने उत्तर दिया, "बारह बरस ।" भद्रबाहु निमित्तज्ञानी थे । उन्होंने जाना कि बारह बरस का अकाल पड़ने वाला है और यहाँ मुनि-धर्म का निर्वाह कठिन हो जाएगा । इसलिए उन्होंने अपने संघ को एकत्र किया और कहा, "इस क्षेत्र में वर्षा नहीं होने के कारण बारह वर्ष का बहुत कठिन अकाल पड़ेगा । इसलिए आप सब साधुगण लवणसमुद्र के पास के प्रदेशों में ( लवणाब्धि - सनीपताम् ) चले जाएँ ।” हरिषे कथाकोष ( 931 ई.) में यह लिखा है कि भद्रवाहु वहीं रह गये थे । किन्तु वे भी संघ के साथ श्रवणबेलगोल आये थे यह अब ऐतिहासिक तथ्य है । चन्द्रगुप्त ने जब भद्रबाहु के ये वचन सुने तो उन्होंने भी मुनि दीक्षा ले ली ।