________________
242 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थं (कर्नाटक)
अनन्तनाथ की लौह - मूर्ति बनवाई थी ।
उन्नीसवीं सदी के अन्त में अभिषेकों की परम्परा में भी यहाँ के भट्टारकों का उल्लेख किया जा चुका है। इस प्रकार यह संस्था प्राचीन सिद्ध होती है ।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद श्रवणबेलगोल के मठ ( तथा अन्य स्थानों के मठों) की आर्थिक स्थिति में गिरावट आ गई। सन् 1925 ई. में भट्टारक चेल्लुवर स्वामी के समय में, मठ में एक सौ गाय और ग्यारह गाँवों का स्वामित्व था । ये गाँव 1947 तक मठ के अधीन रहे किन्तु 1951 ई. में 'इनाम एबॉलिशन एक्ट' के कारण मठ के पास केवल चार गाँव ही रह गए और वे भी 1962 ई. में 'लैण्ड रिफॉर्म एक्ट' लागू होने पर मठ के हाथों से निकल गए। इस प्रकार मठ की स्थिति शोचनीय हो गई। तत्कालीन भट्टाकलंक स्वामीजी कन्नड़ और संस्कृत नहीं जानते थे । अतः उत्तर भारत से संपर्क टूट सा गया । भारतवर्षीय तीर्थक्षेत्र कमेटी से भी 'कुछ सम्बन्ध तनावपूर्ण रहे । स्व. साह शान्तिप्रसाद जी ने तीर्थक्षेत्र कमेटी का अध्यक्ष पद ग्रहण करते श्रवणबेलगोल क्षेत्र की स्थिति संभाली और मुज़रई मैनेजिंग कमेटी बनाकर तीर्थ क्षेत्र समुचित व्यवस्था करा दी। मठ की स्वाधीनता भी सुरक्षित रखी गई। वर्तमान भट्टारक श्री चारुकीर्ति जी के समय में तो श्रवणबेलगोल पूरे भारत का एक 'अपना' तीर्थ हो गया है और उसे सभी प्रदेशों का मुक्त सहयोग प्राप्त हुआ है
वर्तमान भट्टारक, कर्मयोगी स्वस्ति श्री चारुकीर्ति स्वामीजी - हुमचा के भट्टारक श्री देवेन्द्रकीर्ति जी अभिशंसा पर, वहाँ के गुरुकुल में अध्ययनरत छात्र श्री रत्नवर्मा को श्रवणबेलगोल के भट्टारक पद के लिए भट्टाकलंक स्वामी ने चुना था । गुरुकुल में अध्ययन के समय तरुण रत्नवर्मा ने कन्नड, संस्कृत हिन्दी भाषाओं तथा धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया था। स्वामी भाकलंक जी ने उनकी हस्तरेखाएँ आदि का विचार कर उन्हें भट्टारक - दीक्षा लेने के लिए कहा किन्तु श्री रत्नवर्मा सहमत नहीं हुए। हुमचा के भट्टारक जी के इस आदेश पर किया तो वे श्रवणबेलगोल जाएँ या गुरुकुल छोड़ दें, उन्होंने गुरुकुल छोड़कर किसी प्रकार मेट्रिक की पढ़ाई पूरी की । स्वामी भट्टाकलंक जी ने उन्हें कॉलेज की पढ़ाई के लिए श्रवणबेलगोल बुलाया । अपने बाल सखा श्री विश्वसेन (जो अब भट्टारक जी के निजी सचिव हैं) से पर्याप्त विचार कर वे श्रवणबेलगोल आ गए। इतने में स्वामी जी गम्भीर रूप से रुग्ण हो गए। अन्त में विवश होकर श्री रत्नवर्मा को क्षुल्लक दीक्षा लेनी पड़ी और महावीर जयन्ती, 19 अप्रैल 1970 ई. के दिन उन्हें श्रवणबेलगोल के भट्टारक पद पर अभिषिक्त कर दिया गया । उस समय उनकी आयु केवल उन्नीस वर्ष की थी ।
वर्तमान भट्टारक जी कारकल के पास वरंग क्षेत्र (गाँव) के निवासी हैं। सौम्य प्रकृति, गम्भीर स्वभाव के भट्टारक जी ने श्रवणबेलगोल की उन्नति के लिए विविध सहयोग प्राप्त कर क्षेत्र की कीर्ति बढ़ाई है। उनकी कुछ उपलब्धियाँ हैं—- गोम्मटेश्वर विद्यापीठ की स्थापना, दिगम्बर जैन साधु सेवा समिति की अध्यक्षता, चन्द्रगुप्त ग्रन्थशाला, श्री विहार विशेषांकमाला, नवीन चन्द्रप्रभ जिनालय की स्थापना, साहू श्रेयांसप्रसाद अतिथि निवास, मुनि विद्यानन्द निलय, कर्नाटक पर्यटन विभाग की केण्टीन, भक्ति गेस्ट हाउस, गंगवाल गेस्ट हाउस, पी. एस. जैन गेस्ट हाउस, लाला सिद्धोमल जैन गेस्ट हाउस, मंजुनाथ कल्याण मण्डप, मध्यप्रदेश भवन,