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244 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
श्रवणबेलगोल के शिलालेखों के संग्रह और अध्ययन का कार्य मैसूर विश्वविद्यालय के 'इन्स्टीट्यूट ऑफ कन्नड़ स्टडीज़' ने और भी आगे बढ़ाया तथा उसके प्रयत्नों के फलस्वरूप श्रवणबेलगोल के शिलालेखों की संख्या 573 तक पहुँच गई। इनका नवीन संस्करण 1971 ई. प्रकाशित हुआ है । यह संग्रह कन्नड़ लिपि या रोमन लिपि में ही है ।
सामान्य उपयोगिता - इन शिलालेखों से भारतीय, विशेषकर कर्नाटक के इतिहास और जैनधर्म के इतिहास की अनेक गुत्थियाँ जानने-समझने में बड़ी सहायता मिली है।
श्रवणबेलगोल के ये शिलालेख ईसा की छठी शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक के हैं। चन्द्रगिरि की पार्श्वनाथ बसदि के दक्षिण की ओर 600 ई. ( शक संवत् 522 ) का जो शिलालेख है, उसी से हमें यह ज्ञात होता कि आचार्य भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य (दीक्षा नाम प्रभाचन्द्र) संघ सहित अनेक जनपदो को पार कर उत्तरापथ से दक्षिणापथ आए थे और यहीं कटवप्र पर उन्होंने समाधिमरण किया था ।
संख्या की दृष्टि से सबसे अधिक शिलालेख बारहवीं शताब्दी के हैं ( कुल 128 ), और उसके बाद दसवीं शताब्दी के 76 शिलालेख संख्या -क्रम में हैं ।
चन्द्रगिरि पर 271 लेख हैं तो 172 विंध्यगिरि पर । कुल 530 लेखों में से शेष 80 श्रवणबेलगोल नगर में और आस-पास के गाँवों में 50 शिलालेख हैं ।
यहाँ के शिलालेखों में निम्नलिखित लिपियों का प्रयोग हुआ है- कन्नड़, मलयालम, तमिल, तेलुगु, देवगिरि ( मराठी के लिए भी) और महाजिनी । इस विविधता से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि श्रवणबेलगोल उत्तर और दक्षिण भारत में समान रूप से एवं प्राचीनकाल से ही एक लोकप्रिय तीर्थस्थान रहा है । आज की भाँति, अतीत में भी यहाँ की यात्रा सभी प्रदेशों के लोग करते रहे हैं। पंजाब प्रदेश की टोकरी भाषा में भी यहाँ लेख पाया गया है ।
शिलालेख लिखे जाने के अनेक विषय रहे हैं । मात्र सल्लेखना सम्बन्धी एक सौ लेख चन्द्रगिरि पर हैं । लेखों से सूचना मिलती है कि मुनियों, आर्यिकाओं, श्रावक-श्राविकाओं ने कितने दिनों का उपवास, व्रत या तप करके शरीर त्यागा था । इन त्यागियों में कुछ तो राजवंश से सम्बन्धित जन भी हैं । सबसे प्राचीन लेख भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा सल्लेखना का उल्लेख करता है ।
एक शिलालेख में उल्लेख है कि कलन्तूर के मुनि ने कढवत्र पर्वत पर एक सौ आठ वर्ष तक तप करके समाधिमरण किया ।
सल्लेखना सम्बन्धी लेख सबसे अधिक सातवीं-आठवीं सदी के हैं। उनसे यह तथ्य सामने आता है कि कटवप्र या चन्द्रगिरि सल्लेखना के लिए एक पवित्र पर्वत के रूप में उन दिनों बहुत प्रसिद्ध हो चुका था और दूर-दूर से आकर यहाँ स्वेच्छा से शरीर त्यागना पवित्र या पुण्य-लाभ का कार्य माना जाता था ।
शिलालेखों में से लगभग 160 लेख यात्रियों के हैं। इनमें से 107 दक्षिण भारतीय यात्रियों के और शेष उत्तर भारतीयों के ।
मन्दिर मूर्ति निर्माण और दान से सम्बन्धित शिलालेखों की संख्या सबसे अधिक है । विभिन्न प्रकार के दान जैसे अभिषेक, आहार और मन्दिरों की सुरक्षा, उनका व्यय