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234 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थं (कर्नाटक)
से उत्तर भारतीय था । इनके पूर्वज राजा विष्णुगुप्त ने भगवान नेमिनाथ के निर्वाण पर ऐन्द्रध्वज पूजा की थी । कालान्तर में तीर्थंकर पार्श्वनाथ को केवलज्ञान होने पर इस वंश के प्रियबन्धु राजा ने उनकी पूजा की थी ।
वंश बढ़ता गया । उसी वंश में पद्मनाभ राजा के शासन काल में उज्जयिनी के राजा महिपाल ने अचानक उस पर आक्रमण किया। इस अवसर पर राजा पद्मनाभ ने अपने दो पुत्रों माधव और दडिग को दक्षिण की ओर भेज दिया। चलते-चलते वे दोनों पेरूर नामक तालाब और सुरम्य पहाड़ी के पास पहुँचे । वहाँ उन्हें एक चैत्यालय दिखाई दिया । उन्होंने जिन - वन्दना की और वहीं उन्हें आचार्य सिंहनन्दि के दर्शन हुए। दोनों भाइयों ने आचार्य की विनय की और अपने आने का वृत्तान्त उन्हें सुनाया । आचार्य ने उन्हें होनहार जानकर विद्याओं में प्रवीण किया और पद्मावती से उनके लिए वर प्राप्त किया। एक दिन मुनिराज सिंहनन्दि ने देखा कि माधव ने अपनी पूरी शक्ति से एक पाषाण-स्तम्भ पर अपनी तलवार से प्रहार किया तो वह स्तम्भ कड़कड़ करते हुए नीचे गिर पड़ा। मुनिराज ने इस शक्ति को देखकर उनको कण्णिकार के परागों से तैयार किया एक मुकुट पहनाया, उन पर अनाज की वृष्टि की और ध्वज के लिए अपनी (मोरपंख की) पीछी का निशान दिया और इस प्रकार उन्हें राजा बना दिया । साथ ही उन्होंने यह चेतावनी भी दी, "अपनी प्रतिज्ञात बात को यदि वे नहीं करेंगे; अगर वे जिनशासन को स्वीकार नहीं करेंगे; अगर वे दूसरों की स्त्रियों को ग्रहण करेंगे; अगर वे मांस और मधु का सेवन करेंगे; अगर वे नीचों से सम्बन्ध जोड़ेंगे; अगर वे आवश्यकता वालों को अपना धन नहीं देंगे; अगर युद्धभूमि से भाग जाएँगे - तो उनका वंश नष्ट हो जाएगा ।" और उस समय से ही "उच्च नन्दगिरि उनका क़िला हो गया, कुवलाल ( आधुनिक कोलार ) उनका नगर बन गया, 96000 उनका देश हो गया, निर्दोष जिन उनके देव हो गये, विजय उनकी युद्धभूमि की साथिन बन गई और जिनमत उनका धर्म हो गया ।"
इस लेख में आचार्य सिंहनन्दि को 'गंगराज्य समुद्धरण' कहा गया है । सातवीं शताब्दी के शिलालेखों से भी इस बात की पुष्टि होती है । यह घटना कुछ विद्वानों के अनुसार 178 ई. और कुछ के अनुसार 350 ई. की बताई जाती है । इस वंश ने प्रभारी ढंग से ग्यारहवीं सदी तक तथा किसी-न-किसी रूप में 16वीं सदी तक राज्य किया । इतिहास में शायद ही कोई राजवंश हो जिसने इतनी लम्बी अवधि तक शासन किया ।
इसी वंश का बड़ा प्रतापी एवं धर्मात्मा राजा गंगराज मारसिंह ( 961-674) ई. में हुआ है । शिलालेखों में उसकी विजयों से सम्बन्धित अनेक उपाधियाँ जैसे नोलम्बकुलान्तक, गंगकन्दर्प आदि दी गई हैं। साथ ही उसे 'जिनेन्द्र नित्याभिषेक रत्न - कलश' जैसी धार्मिक उपाधियाँ दी गई हैं। कर्नाटक के पुलिगेरे (आधुनिक लक्ष्मेश्वर) में उसने एक जिनमन्दिर बनवाया था जो 'गंगकन्दर्प जिनालय' कहलाता था । अपने जीवन के अन्तिम समय में उसने बंकापुर में आचार्य अजितन से सल्लेखनाव्रत ग्रहण कर अपना शरीर त्यागा था ।
राजा मारसिंह के बाद, उसका पुत्र राचमल्ल सत्यवाक्य चतुर्थ (974-984 ई.) गंगराज्य का स्वामी हुआ । उसने अपने राज्य के प्रथम वर्ष में ही श्रवणबेलगोल के अनन्तवीर्य गुरु गूर ग्राम तथा अन्य भूमि दान में दी थी । धर्मप्राण गंगवंश के जैनधर्मानुयायी इसी राजा
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