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222 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
रहा है और कीर्ति की ओर उन्मुख हो रहा है और एक तू है जो लोभ में फँसा जा रहा है।" शिल्पी को माता की बात समझ में आ गई, उसके हाथ सोने से छूट गए और वह भक्तिपूर्वक प्रतिमा के निर्माण में तल्लीन रहने लगा।
(6) गोम्मटेश्वर-द्वार की बाईं ओर एक पाषाण पर शक संवत 1102 का एक लम्बा शिलालेख है जिसमें कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि बोप्पण ने गोम्मट-जिन की मूर्ति की स्थापना का सुन्दर वर्णन किया है। उसमें कवि ने एक दैवी घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि एक दिन आकाश से गोम्मट-जिन पर 'नमेरु' पुष्पों की वर्षा हुई जिसे सभी ने देखा। इसी प्रकार "भगवान की भुजाओं के अधोभाग से नित्य सुगन्ध और केशर के समान लाल ज्योति की आभा निकलती रहती है।"
कवि बोप्पण ने यह भी लिखा है कि कोई भी पक्षी मूर्ति के ऊपर से नहीं उड़ता। यह तो आज भी हर कोई देख सकता है कि कोई भी पक्षी मति पर नहीं बैठता। यदि अतिशय नहीं होता तो एक हजार वर्षों में कितने पक्षियों ने इसे मैला कर दिया होता। उस पर घोंसले या मधुमक्खी के छत्ते बनते-बिगड़ते रहते । किन्तु मानव से हीन बुद्धिवाले पक्षियों ने भी मूर्ति की पवित्रता को आज तक बनाए रखा है।
पौराणिक एवं ऐतिहासिक आख्यान इस पवित्र स्थली से सम्बन्धित तीन प्रमुख आख्यान हैं-1. ऋषभदेव एवं भरतबाहुबली आख्यान, 2. भद्रबाहु-चन्द्रगुप्त आख्यान और 3. चामुण्डराय एवं उनके द्वारा बाहुबली
तिष्ठापना सम्बन्धी आख्यान ।
ऋषभदेव
आदि तीर्थंकर ऋषभदेव और भरत-बाहुबली की कथा का सम्बन्ध पौराणिक युग से है । आचार्य जिनसेन के 'आदिपुराण' में यह कथा विस्तार से वर्णित है। 'आदिपुराण' में ऋषभदेव की स्तुति में कहा गया है
योऽभूत्पञ्चदशो विभुः कुलभृतां तीर्थेशिनां चाग्रिमो,
दृष्टो येन मनुष्यजीवनविधिमुक्तेश्च मार्गो महान् । बोधो रोधविमुक्तवृत्तिरखिलो यस्योदपाद्यन्तिमः,
स श्रीमान् जनकोऽखिलावनिपतेराद्यः स दद्याच्छ्यिम् ।।47-401॥ ___ अर्थात् जो कुलकरों में पन्द्रहवें कुलकर थे, तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर थे, जिन्होंने मानवों की जीविका का तथा मुक्ति का महान् मार्ग देखा था (बताया था), जिन्हें आवरणरहित अन्तिम ज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त हुआ और जो सम्पूर्ण पृथ्वी के अधिपति (चक्रवर्ती भरत) के पिता थे,