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श्रवणबेलगोल | 219
श्रवणबेलगोल
"दुनिया में ऐसे भी कुछ नगर हैं जो प्रायः अनादिकाल से विद्यमान हैं । रोम तथा वाराणसी को तो अनादिकालीन नगर माना हो जाता है, श्रवणबेलगोल का भी नाम इसी सूची में आने योग्य है। कर्नाटक के अन्य किसी भी स्थान का इतिहास इतना दीर्घकालीन और अविछिन्न नहीं है। दन्तकथाओं, इतिहास और साहित्य में जितनी चर्चा इसकी है, उतनी और किसी की नहीं।"
-न. स. रामचन्द्रया, मैसूर
अवस्थिति एवं मार्ग
कर्नाटक के तीर्थस्थानों में श्रवणबेलगोल को तीर्थराज की संज्ञा दी जा सकती है। यहाँ पहुँचने के लिए केवल सड़क-मार्ग है । यह तीर्थ बंगलोर से 142 कि. मी., मैसूर से 80 कि. मी., हासन से 48 कि. मी. और अरसीकेरे (रेलवे स्टेशन) से 70 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। इन स्थानों से आने वाले यात्रियों को यदि श्रवणबेलगोल की सीधी बस नहीं मिले तो उन्हें मैसूरबंगलोर राजमार्ग पर स्थित चन्नरायपट्टन नामक स्थान तक आ जाना चाहिए। यह एक बड़ा बस-स्टैंड है और प्रायः सभी ओर से बसें यहाँ आती हैं। इस स्थान से श्रवणबेलगोल केवल 13 कि. मी. है और बसों की अच्छी सुविधा है।
निकटतम रेलवे स्टेशन हासन जं. है। मैसूर से हासन तक भी सीधी रेल-सेवा है। श्रवणबेलगोल : नामों को सार्थकता
श्रवणबेलगोल अर्थात् श्रमण या जैन मुनियों (श्रवणों) का बेळगोळ (अर्थात् श्वेत सरोवर) वास्तव में कन्नड नाम है। परम्परा से यह तीर्थ अब इसी सरोवर, जिसका नाम कल्याणी सरोवर है, के कारण श्रवणबेलगोल कहलाता आ रहा है । वैसे विभिन्न युगों और विभिन्न दृष्टिकोणों के कारण इस क्षेत्र के और भी अनेक नाम रहे हैं । इनका बहुत कुछ ज्ञान हमें यहाँ पाये गये लगभग 577 शिलालेखों एवं अन्य साधनों से प्राप्त होता है। जितने शिलालेख यहाँ पाये जाते हैं, भारत में उतने शायद ही और किसी स्थान पर हों । ये शिलालेख ईसा की छठी शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक के हैं। शिलालेखों की इस पृष्ठभूमि से इस स्थान के नामों को समझने में सहायता मिलेगी।
श्रवणबेलगोल का सबसे प्राचीन नाम 'कटवप्र' है । यह नाम ईसा की छठी शताब्दी के शिलालेख में है जिसके अनुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु और आचार्य प्रभाचन्द्र (चन्द्रगुप्त मौर्य का मुनि-अवस्था का नाम) ने इस कटवप्र (पहाड़ी) पर समाधिमरण किया था। कटवप्र संस्कृत नाम है। 'कट' का अर्थ है समाधिमण्डप और 'वप्र'से आशय है पर्वत की चोटी या शिखर । क्योंकि यहाँ की चन्द्रगिरि या छोटी पहाड़ी पर श्रुतकेवली भद्रबाहु से लेकर अब तक सैकड़ों की संख्या में मुनियों एवं श्रावक-श्राविकाओं ने सल्लेखना-विधि द्वारा अपना शरीर त्यागा है और इसी से सम्बन्धित सैकड़ों लेख एवं बहुत से चरण-चिह्न भी यहाँ हैं अतः इसका 'कटवप्र' नाम सार्थक है।