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लक्कुण्डि / 63
मणि - माणिवयादि महार्घ्य रत्नों 1500 जिन प्रतिमाएँ बनवाकर उसने विभिन्न मन्दिरों में प्रतिष्ठापित की थीं, अनेक जिनालयों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार कराया था, आहार-अभयऔषध-विद्या रूप चार प्रकार का दान अनवरत देती रहने के कारण वह 'दान - चिन्तामणि' कहलायी थी । उभयभाषा - चक्रवर्ती महाकवि पोन्न के शान्तिपुराण (कन्नडी) की स्वद्रव्य से एक सहस्र प्रतियाँ लिखाकर उसने विभिन्न शास्त्र भण्डारों आदि में वितरित की थीं। स्वयं सम्राट् एवं युवराज की इस देवी के धर्मकार्यों में अनुमति, सहायता एवं प्रसन्नता थी । सर्वत्र उसका अप्रतिम सम्मान और प्रतिष्ठा थी । उक्त घटना के लगभग एक सौ वर्ष पश्चात् भी ( 1118 ई० के शिलालेखानुसार ) होय्सलनरेश के महापराक्रमी सेनापति गंगराज ने महासती अत्तिमब्बे द्वारा गोदावरी प्रवाह को स्थिर कर देने की साक्षी देकर ही उमड़ती हुई कावेरी नदी को शान्त किया था । शिलालेख में कहा गया है कि विश्वमहान् जिनभक्त अत्तिमब्बरसि की प्रशंसा इसलिए करना है कि उसके आज्ञा देते ही उसके तेजोप्रभाव से गोदावरी का प्रवाह तक रुक गया था । आनेवाली शताब्दियों में बाचलदेवी, बम्मलदेवी, लोक्कलदेवी आदि अनेक परम जिनभक्त महिलाओं की तुलना इस आदर्श नारीरत्न अत्तिमब्वे के साथ की जाती थी । किसी सतवन्ती, दानशीला या धर्मात्मा महिला की सबसे बड़ी प्रशंसा यह मानी जाती थी कि 'यह तो दूसरी अत्तिमब्बे है' अथवा 'अभिनव अत्तिमब्बे' है । डॉ. भास्कर आनन्द सालतोर के शब्दों में, “जैन इतिहास के महिला जगत् में सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रशंसित नाम अत्तिमब्बे है ।" कहा जाता है कि एक बार ग्रीष्म ऋतु में वह जब श्रवणबेलगोल में गोम्मट - स्वामी का दर्शन करने के लिए पर्वत पर चढ़ रही थी तो तीखी धूप से सन्तप्त हो सोचने लगी कि इस समय वर्षा हो जाती - और तत्काल आकाश पर मेघ छा गये तथा वर्षा होने लगी । सती असीम भक्ति से भगवान की पूजा कर संतुष्ट हुई ।"
अत्तिमब्बे की उपर्युक्त जीवन-गाथा से दो निष्कर्ष सहज ही निकलते हैं- एक, पुण्यात्मा जीव द्वारा सच्चे हृदय से की गई भक्ति चमत्कारिक फल दे सकती है और दूसरे, इस क्षेत्र के आस-पास हजारों की संख्या में जैन मन्दिर थे । तब ही तो महासती ने 1500 रत्न- प्रतिमाएँ वितरित की थीं। कम-से-कम कर्नाटक में तो जैनधर्म बहुत फैला हुआ था ।
अत्तिमब्बे के पुत्र अणिग मासवाङि का यहाँ किसी समय शासन था । एक शिलालेख में यह उल्लेख है कि 1175 ई० में यहाँ की 'नेमिनाथ बसदि' को भक्तों ने दान दिया था । एक और शिलालेख से ज्ञात होता है कि लवकुण्डि के 'वसुधैकबा धव जिनालय' को कुछ भक्तों ने दान देकर एक दानशाला ( धर्मशाला ) बनवाई थी ।
जैन मन्दिर और मूर्तियाँ
वर्तमान में, लक्कुण्ड में एक जैन मन्दिर है जो 'ब्रह्म जिनालय' कहलाता है । इसमें यहीं का निवासी एकमात्र जैन पुजारी पूजन करता है। दूसरा जैन मन्दिर 'नागनाथ मन्दिर' हो गया है। बताया जाता है कि लक्कुण्डि में एक ही पंक्ति में पाँच जैन मन्दिर थे । एक मन्दिर के चिह्न - स्तम्भ, नींव, ब्रह्म जिनालय के प्रवेशद्वार के पास देखे जा सकते हैं । पर्यटक यह देखेंगे कि मन्दिरों के पत्थरों आदि का उपयोग कर यहाँ मन्दिरों के पास ही कुछ मकान बन गए हैं । भारतीय पुरातत्त्व विभाग का ध्यान इस ओर गया है और वह अव यहाँ से मकान हटवा