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कारकल / 151
आबालवृद्ध हज़ारों लोग सम्मिलित हुए। जयघोष और गाजे-बाजे के साथ यह गाड़ी बहुत कम आगे सरकती थी। उस समय उसके भार से ऐसा लगता था कि पृथ्वी हिल रही है । राजा
और मन्त्री आदि उच्चाधिकारी लोगों का उत्साह बढ़ाते थे। लोगों की थकान दूर करने के लिए राजा स्वयं अपने हाथों से लोगों को मीठे पेय पदार्थ, आम, खजूर आदि फल तथा खाद्य पदार्थ बाँटता था। राजा ने गाड़ी के पहियों में बेशुमार नारियल बँधवाये थे । अन्त में मूर्ति का यह स्थूल आकार एक माह के परिश्रम के बाद वर्तमान पहाड़ी पर पहुँच गया।
गोम्मटेश की मूर्ति को सुघड़ रूप देने का कार्य अब पहाड़ी पर प्रारम्भ हुआ। शिल्पियों के लिए राजा ने 72 खम्भों वाला एक मण्डप बनवा दिया। राजा उन्हें प्रोत्साहित करता रहा था। फिर भी मूर्ति को वर्तमान रूप देने में एक वर्ष और लग गया। जब प्रतिमा तैयार हुई तो उसे खड़ा करने की अत्यन्त कठिन समस्या सामने आई। पहाड़ी एक-सी तो थी नहीं, उसे समतल भी नहीं किया जा सकता था। अस्तु, राजा ने एक हजार सव्वल लगवाए और पच्चीस हजार जनता ने अपनी पूरी ताकत लगाकर मूर्ति को 13 फरवरी 1432 के दिन अपने स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया। उस दिन का वातावरण भी अभूतपूर्व था। राजा स्वयं जयजयकार कर रहा था, मंगलाचरण एवं स्तुति पढ़ी जा रही थीं; कवि,गायक और ललनाएँ कोमल सुमधुर स्वरों में गा रहे थे। बाजे बज रहे थे और घण्टों का निनाद हो रहा था। इस अवसर पर अनेक राजमान्य व्यक्ति और सामन्त एवं अन्य राजा उपस्थित थे। विजयनगर के राजा कृष्णदेवराय भी अपनी नगरी से इस शभ अवसर पर आये थे।
बाहुबली की मूर्ति-स्तम्भ के बाएँ और दाएँ जो शिलालेख उत्कीर्ण है उसके अनुसार, 'शक राजा के विरोध्यादिकृत वर्ष अर्थात् 1353 वर्ष के फाल्गुन शक्ल, बुधवार के दिन सोमवंश के भैरवेन्द्र के पुत्र श्री वीर पाण्ड्येशी या पाण्ड्य राय ने यहाँ (कारकल में) बाहुबली की प्रतिमा बनवाकर प्रतिष्ठित कराई। यह प्रतिमा जयवंत रहे । यह कार्य उन्होंने देशीगण के पनसोगे शाखा की परम्परा में होने वाले ललितकीति मुनीन्द्र के उपदेश से किया।'
गोम्मटेश्वर की मूर्ति-स्तम्भ के सामने जो ब्रह्मदेव स्तम्भ है उस पर भी यह आलेख (यहाँ के लोग 'शासन' कहते हैं) उत्कीर्ण है कि 'शक राजा के राक्षस नाम के 1358वें वर्ष में फाल्गुन शुक्ल 12 के दिन, जिनदत्त के वंशज भैरव के पुत्र श्री वीरपाण्ड्य नृपति की प्रत्येक इच्छा पूरी करने के लिए प्रतिष्ठापित यह जिनभक्त ब्रह्म (देव) प्रतिमा तुम्हारी भी मनोकामना पूरी करे।'
श्रवणबेलगोल की मूर्ति की ही भाँति, कारकल में बाहुबली की यह प्रतिमा कवियों, लेखकों एवं कला-पारखियों में कविता, लेखन या विवेचन का विषय रही है। पुरातत्त्व विशारद फर्ग्युसन, पर्सी ब्राउन, शिवराम मूर्ति आदि सभी ने इस पर प्रकाश डाला है । आधुनिक युग में, श्री जी. पी. राजरत्नम् ने अपनी पुस्तक 'कारकल का गोम्मट' में गोम्मट साहित्य का परिचय दिया है जो मराठी और तमिल आदि भाषाओं में भी उपलब्ध है। पर्सी ब्राउन ने इसे 'Carved out of living rock' बताया है। फर्ग्युसन ने इस बात की पुष्टि की है कि सचमुच यह मति और कहीं से बनाकर लाई गई और यहाँ प्रतिष्ठिापित की गई।
गोम्मट का कन्नड़ में अर्थ होता है-सुन्दर, मनोहर तथा उत्तम । जैन पुराणों के अनुसार बाहबली कामदेव थे । अतः मन्मथ के लिए प्रयुक्त शब्दों का प्रयोग उनके लिए भी हुआ।