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198 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
ब्रह्मयक्ष द्वारा इस गोल पत्थर के तैरने का चमत्कार निर्मित किया गया।
बंगवाडि से श्रवणगुण्ड तक का पथ कंटकाकीर्ण है। पेड़-पौधों की भरमार होने के कारण अकेले व्यक्ति का वहाँ जाना निरापद नहीं है। वहाँ ठहरने या रहने की व्यवस्था भी नहीं है। आयताकार एक प्रांगण के मध्य में ब्रह्मदेव का एक चौकोर देवालय ही है। प्राकार से बाहर एक तालाब है। यहीं एक द्वार से, जिसके दाएं-बाएँ ऊँचे बिल हैं, ब्रह्मदेव के मन्दिर में पहुँचते हैं। इस मन्दिर के पास एक कुआ है जो हमेशा सूखा रहता है। गुण्डुदर्शन के दिन तालाब से पानी लाकर इसमें भरा जाता है। उसी के पास पत्थर के सामने स्थित 'गोपुरासन' में ब्रह्मदेव के विशेष पुजारी (जिन्हें कन्नड में 'पात्रि' कहा जाता है) के बैठने का पत्थर का आसन है । पुजारी पहले ब्रह्मदेव की पूजा करता है और उसके बाद उनकी आरती करता है । इस आरती के समय जारी के शरीर में ब्रह्मदेव का प्रवेश होता है। उस समय पूजारी आरती दूसरे को देकर पत्थर के आसन पर आसीन होता है । संस्था से सम्बन्धित प्रमुख व्यक्तियों से इसे यह अभयवचन होता है कि वह धर्म की महिमा करेगा। फिर, एक अन्य पुजारी चाँदी के बर्तन में रखे पत्थर को एक बड़ी थाली में रखकर 'पात्रि' के पास लाता है। पात्रि उस पत्थर को स्पर्श करता है और बाद में वह पत्थर पानी से भरे कुए में डाल दिया जाता है । वह गोल पत्थर पानी में डुबकी लगाकर ऊपर आता है और इस प्रकार पानी में तैरने लगता है जैसे छाछ में मक्खन । लगभग दो मिनट तैरने के बाद वह पुनः पानी में चला जाता है। एक-एक कर भक्त उसका श्रद्धापूर्वक दर्शन करते हैं। प्रायः दो मिनट पहले ही गोल पत्थर को बड़ी थाली से निकाल लेते हैं।
इस विस्मयकारी पत्थर को किसी ने चुरा लिया था। तब से 1913 ई. तक यह दर्शन बंद रहा । सन् 1914 ई. में धर्मस्थल के श्री चन्द्रय्य हेग्गडे बंगवाडि के रथोत्सव में आए। तब हेग्गडेजी ने पात्रि से कहा, "गोल पत्थर का अपहरण होने के बाद उसका दर्शन नहीं हुआ। इससे नाना प्रकार की बातें उठ जाती हैं। इसलिए जैनधर्म एवं ब्रह्मदेव की महिमा का प्रदर्शन होना चाहिए। हमें ब्रह्मदेव से इस प्रकार का अभयवचन मिलना चाहिए।" इस पर पात्रि ने उत्तर दिया, “मंजुनाथ ! (हेग्गडेजी का सम्बोधन) तुम जैसा चाहते हो वैसा ही प्रदर्शन होगा। मारी महिमा अब भी है। डरो मत. अभी पत्थर लाकर अपनी महिमा दिखाते हैं।" यह कहकर पात्रि ने हेग्गडेजी का हाथ पकड़ा और वे दोनों जंगल में काँटों की राह प्रवेश कर गए। वे नेत्रावती नदी के किनारे पहुँचे। उसके दोनों ओर सघन ऊँचे-ऊँचे वृक्ष थे और नदी भी गहरी थी। कुछ व्यक्ति भी उनके पीछे-पीछे गए थे। वहाँ पहुँचकर पात्रि (ब्रह्मदेव) ने हेग्गडेजी से पूछा, "क्या पत्थर आवश्यक है ? हमारी महिमा का प्रकाशन आवश्यक है न?" यह कहकर पात्रि ने उस अथाह पानी में डुबकी लगाई। किन्तु मगर-मच्छवाले उस जल में जब वह पाँच मिनट तक बाहर नहीं आए तो सभी चिन्तित हुए। किन्तु भय और आशंका के बीच पात्रि पाँच मिनट से कुछ देर बाद बाहर आए और उन्होंने हेग्गडेजी से पूछा, "क्या इस पत्थर से काम चल जाएगा? जब हेग्गडेजी ने 'हाँ' कहा, तब उस पत्थर को थाली में रखकर ब्रह्मदेव की पूजा की गई। उसके बाद जब पत्थर को पानी-भरे कुएँ में डाला गया तो वह पानी में तैरने लगा। इसे सैकड़ों लोगों ने अपनी आँखों से देखा था । गुण्डुदर्शन का यह सिलसिला अनेक वर्षों तक चलता रहा। सुप्रसिद्ध कन्नड साहित्यकार श्री शिवराम कारंत भी इसे देखकर आश्चर्यचकित हुए थे। आगे