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हलेविड | 215
आकृति-इसी प्रकार पहली पंक्ति के दूसरे स्तम्भ के पास खड़े होकर हाथ ऊँचे करने से दो हाथ दिखाई देते हैं और पानी में केंकड़े जैसी आकृति बनती है । (3) नवरंग में बीच में खड़े होने पर प्रथम पंक्ति के अंतिम स्तम्भ के सामने खडे होकर देखने से कपडे का रंग दिखता है। प्रतिबिम्ब (reflection) की ऐसी अनूठी व्यवस्था तो बेलूर और हलेबिड के कलापूर्ण मन्दिरों में भी संभवतः नहीं है। यह दुर्लभ शिल्प इन मन्दिरों की बहुत बड़ी विशेषता है।
मन्दिरों के प्रांगण में एक पुरानी बावड़ी है जोकि लगभग 70 फुट गहरी है।
यहाँ के मन्दिरों के कुछ प्रमुख शिलालेखों का सार
परम धार्मिक सहिष्णुता का शिलालेख–पार्श्वनाथ बसदि के प्रांगण में संस्कृत और कन्नड़ में 1638 ई. का एक शिलालेख है। इसके मंगलाचरण में जिनेन्द्र भगवान के स्तवन के बाद शम्भु को नमस्कार किया गया है । इसमें यह उल्लेख है कि जिस समय वेंकटाद्रि नामक आर्य बेलूर की रक्षा कर रहा था, उस समय हुच्चप्पदेव नामक व्यक्ति ने हलेबिड के 'विजय पार्श्वनाथ बसदि' के स्तम्भों पर लिंगमुद्रा लगा दी। विजयप्प ने उसको तोड़ दिया। इस पर हलेबिड के महा-मत्तुओं ने मिलकर यह आदेश जारी किया कि चन्द्र-सूर्य के स्थायी रहने तक जैन लोग अपनी सभी धार्मिक विधि कर सकेंगे। इस प्रकार शैवों और जैनों की सहिष्णुता का उद्घोषक है यह शिलालेख।
शान्तिनाथ की प्रतिमा बाहर निकालें-विजय पार्श्वनाथ मन्दिर के बाहर की दीवाल के एक स्तम्भ पर लगभग 1300 ई. का एक कन्नड़ लेख है। उसमें यह सूचना है कि ईशान दिशा से प्रारम्भ करके, (ईशान से) पन्द्रह बिलस्त के अन्तर पर शान्तिनाथ देव, जिनकी ऊँचाई छह बिलस्त है, जमीन के अन्दर गड़े हुए हैं। कोई पुण्य पुरुष उनको बाहर निकालकर उनकी प्रतिष्ठा कराके पुण्य का उपार्जन करे।
आदिनाथ मन्दिर का शिलालेख यह सूचित करया है कि 1274 ई. में बालचन्द्र पण्डितदेव (सारचतुष्टय आदि ग्रन्थों के टीकाकार) ने सल्लेखना धारण कर ली थी और यहाँ के भव्यों ने उनकी तथा पंचपरमेश्वर की मति प्रतिष्ठापित की थी।
शान्तीश्वर मन्दिर के शिलालेख में बालचन्द्र के श्रुतगुरु अभयचन्द्र की सल्लेखना का उल्लेख है।
सन् 1117 ई. में विजय-पार्श्व मन्दिर की प्रतिष्ठा और विष्णुवर्धन द्वारा बंकापुर में गन्धोदक ग्रहण सम्बन्धी एक शिलालेख पार्श्वनाथ बसदि के बाहर है।
___उपर्युक्त बसदि में ही 1255 ई. का शिलालेख है जिसमें होय्सलनरेश वीर नरसिंह ने यहाँ के शिलालेख में अपनी वंशावली पढ़ी और यहाँ की चहारदीवारी सुधरवा दी तथा अन्य दान भी विजयपार्श्वदेव को अर्पित किए।
यहीं के 1196 ई. के एक शिलालेख में उल्लेख है कि व्यापारी कवडमय्य और देविशेट्टी ने कोरडुकेरे नामक गाँव खरीदकर शान्तिनाथ बसदि को दान स्वरूप भेंट किया।
पार्श्वनाथ बसदि की बाहर की दीवाल पर 1133 ई. के शिलालेख में होय्सल राजाओं की वंशावली और दान का उल्लेख है।