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206 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
अब हम यह देखें कि शिलालेखों और अन्य तथ्यों के प्रकाश में सच्चाई क्या है
(1) डॉ. ज्योतिप्रसाद का यह कथन युक्तिसंगत जान पड़ता है कि यदि बिट्टिग या विष्णुवर्धन जैनधर्म द्वेषी हो गया होता तो जैन शिलालेख उसके नये नाम 'विष्णुवर्धन' का उल्लेख कदापि नहीं करते।
(2) श्रवणबेलगोल की बाहुबली मूर्ति आज भी ज्यों की त्यों खड़ी है। वह नष्ट नहीं हुई। उसका एक हजारवाँ प्रतिष्ठापना महोत्सव भी 1981 ई. में सम्पन्न हो चुका है।
(3) तिप्पूर (कुलगेटी प्रदेश) नामक गाँव के उत्तरपूर्व में पहाड़ी पर संस्कृत तथा कन्नड में 1117 ई. का जो शिलालेख है, उसमें जिन-शासन की प्रशंसा के बाद होयसल राजाओं के वंश की प्रशंसा की गई है। बाद में यह उल्लेख है कि विष्णुवर्धन के सेनापति गंग ने तिप्पूर को चोल शासक से लड़कर छोन लिया और विष्णुवर्धन को सौंप दिया। राजा ने वर माँगने को कहा तो गंग ने तिप्पूर माँग लिया और मूलसंघ के मेघचन्द्र सिद्धान्तदेव को दान में दे दिया। इस शिलालेख में महामण्डलेश्वर द्वारावतो-पुरवराधीश्वर विष्णवर्धन को 'सम्यक्त्व-चूडामणि' कहा गया है। (सन्दर्भ-जैनधर्म के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र)।
(4) चामराजनगर में पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर के एक पाषाण पर 1117 ई. का ही एक शिलालेख है। इसमें भी विष्णुवर्धन को 'सम्यक्त्व-चूड़ामणि' कहा गया है। लेख के अनुसार इस राजा के दण्डनाथाधिपति पुणिस ने अरकोट्टार में अपने द्वारा बनवाई गई बसदियों के लिए भूमि-दान किया था।
(5) सन् 1121 ई. में विष्णुवर्धन ने हादिरवागिलु जैन बसदि के लिए दान दिया था।
(6) विष्णुवर्धन ने शल्यनगर (चामराजपट्टन तालुक) में एक जैनविहार बनवाया था। इसका उल्लेख शल्य से प्राप्त 1125 ई. के एक शिलालेख में है।
(7) होसहोल्लु (कृष्णराजपेट तालुक) में पाश्र्वनाथ बसदि के दक्षिण की ओर के एक पाषाण पर 1125 इ. का एक शिलालेख है उसमें भो वीरगंग होय्सलदेव को 'सम्यक्त्व-चूडामणि' कहा गया है।
(8) डॉ. ज्योतिप्रसाद के अनुसार, विष्णुवर्धन ने 1121 ई. में बेलूर स्थित मल्लिनाथ जिनालय के लिए दान दिया था।
(9) विष्णुवर्धन को नई राजधानो द्वारावती (द्वारसमुद्र, आजकल के हलेबिड) में ही विजय-पाश्वनाथ मन्दिर (हलबिड से आधा कि. मी. दूर स्थित बस्तिहल्ली गाँव) की बाहर की दीवाल में एक पाषाण पर 1133 ई. का एक शिलालेख है जिसमें होयसल नरेशों की वंशावली दो गई है और विष्णुवर्धन की विजयों की श्रृंखला का उल्लेख है। वहीं उसकी अनेक उपाधियों में एक उपाधि 'चतुस्समयसमुद्धरण' अर्थात् चतुर्विध संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) का उद्धार करनेवाला और 'शशकपुर-वासंतिकादेवी-लब्ध-वर-प्रसाद' है । और कहा गया है कि उसके 'जिनशासन-रक्षामणि' दण्डनायक गंगराज ने अनेक जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया था। उस गंग सेनापति और दण्डेश बोप्प ने दोरसमुद्र (बस्तिहल्ली) में 'विजय पार्श्वदेव' नामक जिनमन्दिर बनवाया था जो अब भी विद्यमान है । शिलालेख का कथन है कि द्रोहघरट्ट (पापनाशक) इस जिनालय की स्थापना के बाद, पुजारी प्रतिष्ठा के अवसर का पवित्र