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208 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
किया जा चुका है कि बेलूर के उपर्युक्त मन्दिर का विमान शायद बाद की रचना है। इसी मन्दिर के स्तम्भों का विन्यास जैन मन्दिरों के स्तम्भों के विन्यास से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। जो भी हो, यह अनुसंधान का विषय है। यदि यहाँ का शिलालेख भी विष्णुवर्धन का है तो वह एक समदर्शी राजा अवश्य सिद्ध होता है, न कि जैन धर्म का कट्टर वैष्णवशत्रु । बेलूर के प्रसंग में यह उल्लेख किया जा चुका है कि इस शिलालेख में भी जैनों के अर्हन का स्मरण किया गया है।
(15) विष्णुवर्धन की पटरानी शान्तला परम जिनभक्ता थी। उसने श्रवणबेलगोल में सवतिगंधवारण बसदि नामक एक सुन्दर जैन मन्दिर बनवाया था जो आज भी मौजूद है।
___(16) होयसलनरेश विष्णुवर्धन की बड़ी पुत्री हरियब्बरसि या हरियलदेवी ने हन्तियूर (हन्तूरु) में एक जैन मन्दिर बनवाया था ऐसा हन्तूरु के एक ध्वस्त जिनालय के 1130 ई. के शिलालेख से ज्ञात होता है।
(17) महाराज विष्णवर्धन के आठ दण्डनायक या सेनापति गंगराज, बोप्प, पणिसमय्य, ऐचिराज, बलदेव, मरियाने, भरत और बिट्टियण्ण परम जिनभक्त थे। बोप्प निर्मित 'विजयपार्श्व जिनालय' आज भी हलेबिड में मौजूद है।
(18) यह जैन अनुश्रुति भी है कि विष्णुवर्धन ने जैनों पर जो अत्याचार किए उनके कारण द्वारावती (हलेबिड) की धरती फट गई। राजा विष्णुवर्धन ने श्रवणबेलगोल के चारुकीर्तिजी को बुलाया। उन्होंने मन्त्रसाधना की, तब कहीं शान्ति स्थापित हुई। लगता है कि यह भी कोई प्रचारित कहानी है। मूडबिद्री की पाण्डुलिपि के चित्र और अनेक शिलालेख 'सम्यक्त्व-चूडामणि' बिटिग या बिट्टिदेव या विष्णुवर्धन को एक जैनधर्म प्रतिपालक या कमसे-कम सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु या समदर्शी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं। यदि वह जैनधर्म द्वेषी और अत्याचारी हो गया होता तो हलेबिड में आज विजय-पार्श्वनाथ का जो मन्दिर है वह सबसे पहले खण्डहर हो गया होता । यह प्रश्न भी उठता है कि यदि वह कट्टर वैष्णव हो गया तो बेलूर में अत्यन्त सुन्दर चन्नकेशव (विष्णु) मन्दिर को छोड़कर अपनी राजधानी, 17 कि. मी. दूर, हलेबिड में क्यों ले जाता । वास्तव में, प्रमाणों के आधार पर इस विषय पर विचार होना चाहिए। पटरानी शान्तला ____ विष्णुवर्धन की पटरानी का नाम शान्तला था। उसके पिता मारसिंगय्य कट्टर शैव थे और माता माचिकब्बे परम जिनभक्ता थी। (यह मात्र अनुश्रुति ही है कि इस महारानी का पति विष्णुवर्धन कट्टर वैष्णव था।) वह अनिंद्य सुन्दरी थी और नृत्य तथा गायन में भी अद्वितीय थी। उसकी इसी छबि को प्रदर्शित करनेवाले अनेक शिल्प हलेबिड और बेलूर में मिलते हैं।
महारानी शान्तला की विषम धार्मिक परिस्थिति और उससे निपटने की उसकी क्षमता अपूर्व थी। उसकी कहानी आज भी मन को छूती है । उसके जीवन को आधार बनाकर कन्नड़ के प्रसिद्ध लेखक श्री नागराज राव ने कन्नड में 'पट्टमहादेवी शान्तलदेवी' नामक ऐतिहासिक उपन्यास दो बड़े भागों में लिखा है। भारतीय ज्ञानपीठ ने उसके लेखक को 'मूर्तिदेवी पुरस्कार' से सम्मानित किया है और कन्नड उपन्यास का हिन्दी अनुवाद भी ज्ञानपीठ ने चार भागों में