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मूडबिद्री / 165 यह मन्दिर चौथी से छठी शताब्दी के बीच का है। किन्तु मन्दिर की उन्नत शिल्पकला को देखते हुए यह सम्भव नहीं लगता। वैसे भी इसे होस (नया) मन्दिर कहते हैं। यह माना जाता है कि मडबिद्री के मन्दिरों का निर्माण बारहवीं से सोलहवीं सदी के बीच हुआ है।
त्रिभुवनतिलकचूड़ामणि बसदि का परकोटा बहुत ऊँचा है (करीब 15 फीट) और किसी छोटे किले की दीवाल के समान लगता है। मन्दिर का अहाता भी बड़ा है।
मन्दिर का गोपुर (प्रवेशद्वार) भी काफी ऊँचा है। उस पर और उसके आसपास सुन्दर अंकन है। उसके सिरदल पर पद्मासन तीर्थंकर, चँवरधारी और कीर्तिमुख हैं । द्वार के दोनों ओर इन्द्र-इन्द्राणी बने हैं। उनके नीचे सिंह, हाथी और व्याल प्रदर्शित हैं । द्वार के विशाल चार पल्ल लकड़ी के हैं। उन पर दोनों ओर पदमासन में तीर्थंकर पाश्वनाथ विराजमान है। नीचे एक घुड़सवार के हाथ में तीर है तो दूसरी ओर के घुड़सवार के हाथ में तलवार है। देवियाँ भी प्रदर्शित हैं । द्वार पार करने के बाद खुला प्रांगण है।
बसदि के सामने लगभग 50 फीट ऊँचा कलांपूर्ण मानस्तम्भ है । चौकी से ऊपर कमल, उससे ऊपर पद्मासन में तीर्थंकर तथा सबसे ऊपर के भाग में कलश और घण्टियाँ हैं। ___ मानस्तम्भ से आगे एक 'ध्वज-स्तम्भ' भी है।
प्रवेशद्वार की सीढ़ियों के पास एक-एक हाथी, दोनों ओर, हैं। हाथियों की पीठ से घण्टियाँ झूलती हुई दिखाई गई हैं। उनके पैरों में सुन्दर आभूषण हैं।
आगे भैरादेवी मण्डप है (देखें चित्र क्र. 71)। मण्डप कला की दृष्टि से सबसे सुन्दर है। इसके स्तम्भों पर उत्कीर्णन अनेक प्रकार का, सूक्ष्म, मनोहारी एवं नानादेशीय है।
इस मण्डप के स्तम्भ लगभग बारह फीट ऊँचे हैं। नीचे से चतुष्कोण और ऊपर कलात्मक ढंग से गोल बनाए गए ये स्तम्भ हैं तो पत्थर के, किन्तु लगते ऐसे हैं मानो वे लकड़ी के हों। इनकी कारीगरी इतनी विविधतापूर्ण एवं मनोहर है कि कोई भी दो स्तम्भ एक-जैसे दिखाई नहीं देते । कुछ स्तम्भ अष्टकोणीय है । भैरादेवी मण्डप के स्तम्भों पर 'चीनी ड्रेगन'
और जिराफ़ का अंकन भी है। ये पशु भारत में नहीं पाए जाते । ये कैसे होते हैं और इन्हें कैसे अंकित किया जाए इसकी कल्पना निश्चय ही प्राचीन काल के यहाँ के उन व्यापारियों ने शिल्पियों को दी होगी जो समुद्र-मार्ग से देश-देशान्तरों में व्यापार के लिए (विशेषकर रत्नों के) आया-जाया करते थे। ये लोग अपना धर्म निबाहने के लिए हीरे, पन्ने आदि की छोटीछोटी जिनमूर्तियाँ भी अपने साथ रखते थे और अपने क्षेत्र के मन्दिरों को भेंट भी कर देते थे। जो भी हो, इस प्रकार का नानादेशीय अंकन मूडबिद्री के इस मन्दिर के अतिरिक्त कर्नाटक में सम्भवतः और कही नहीं है । बसदि की कड़ियाँ (बीम्स) भी खाली नहीं हैं, उन पर भी नक्काशी है। इस मण्डप की छत के बीच में एक अष्टकोण है। उसमें कमल उत्कीर्ण है और उसकी कलियाँ लटकती हुई दिखाई गई हैं।
उपर्युक्त मण्डप के बाद, एक छोटा-सा बलिपीठ है। फिर एक मण्डप आता है जिसका काष्ठ-द्वार विशाल है। सभा मण्डप में अनेक स्तम्भ हैं। एक मण्डप को कलश-मण्डप भी कहा जाता है क्योंकि उत्सव के समय उसका प्रयोग अभिषेक के लिए किया जाता है। उससे आगे के हॉल या मण्डप में अनेक जिनप्रतिमाएँ हैं। गर्भगृह में चन्द्रप्रभ की पंचधातु की कायोत्सर्ग