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162 | भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
स्थान में कोई-न-कोई अतिशय अवश्य है । अनन्तर उन्हें वहाँ भगवान पार्श्वनाथ की एक विशाल एवं भव्य प्राचीन प्रतिमा के दर्शन हुए। उन्होंने ईस्वी सन् 714 में उसकी प्रतिष्ठा करवाई और एक मन्दिर बनवाया जो कि आगे चलकर 'गुरु बसदि' कहलाया (प्राचीन नाम पार्श्वनाथ बसदि है)।
दसवीं शताब्दी में तुलनाडु का शासन अलुप या अलुववंशी सामन्तों के हाथों में आ गया। वे भी जिनेन्द्रभक्त थे। इसी वंश के राजा कुलशेखर अलुपेन्द्र प्रथम (बारहवीं सदी) के शासनकाल में तुलनाडु में जैनधर्म को राजकीय प्रश्रय प्राप्त था। मूडबिद्री के एक शिलालेख में उल्लेख है कि कुलशेखर तृतीय (1355-1590) ने मूडबिद्री की गुरु बसदि (पार्व मन्दिर) को दान दिया था। इस लेख में कुलशेखर को भट्टारक चारुकीति के 'श्रीपादपद्माराधक' कहा गया है। यह राजा बड़ा वैभवशाली था और रत्नखचित सिंहासन पर बैठता था। • तुलुदेश बंगवाडि के बंगवंश के भी अधीन रहा । यह वंश 1100 से 1600 तक पृथक् अस्तित्व में रहा। इसके सभी राजा जैनधर्म के अनुयायी थे। पहले यह वंश होय्सल शासकों का सामन्त रहा । वीर नरसिंह बंगनरेन्द्र (1245-1275 ई.) एक कुशल और विद्याव्यसनी शासक था। उसके गुरु आचार्य अजितसेन थे। सोलहवीं सदी में यह वंश विवाह-संबंध द्वारा कारकल के भैररस कल से संयक्त हो गया। वह वंश जिनदत्तराय (हमचा में सान्तर वंश के संस्थापक जैन राजा) की कुल-परम्परा में था।
शिलालेखों में तोलहार जैन शासकों 1169 ई. का भी उल्लेख मिलता है।
कालान्तर में सामन्तगण होयसल राजवंश की अधीनता से स्वतन्त्र हो गए। इनमें चौटर वंशीय राजा भी थे जिनका उल्लेख 1690 ई. के एक शिलालेख में मिलता है। इन्होंने मूडबिद्री को अपनी राजधानी बनाया था। बताया जाता है कि इन्होंने लगभग सात सौ वर्षों तक यहाँ राज्य किया। ये जैनधर्म के प्रतिपालक थे। इनके वंशज आज भी मूडबिद्री में अपने जीर्ण-शीर्ण महल में रहते हैं और सरकार से पेंशन पाते हैं।
___ साल्व राजवंश का, हाडुवल्लि का महामण्डलेश्वर मल्लिराय परम जिनभक्त था। मूडबिद्री किसी समय उसके अधीन था ऐसा उल्लेख यहाँ के शिलालेख में पाया जाता है।
___ मूडबिद्री, विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद, टीपू सुलतान के अधिकार में आ गया। उसके बाद यहाँ ब्रिटिश शासन रहा और 1956 में मैसूर राज्य (वर्तमान कर्नाटक) में सम्मिलित कर दिया गया।
क्षेत्र-दर्शन
श्री जैन मठ–बंगलोर-मंगलूर सड़क के एकदम किनारे और मूडबिद्री के लगभग बीचों-बीच स्थित 'जैन मठ' सामने से साधारण दुमंजिला मकान दिखाई देता है। उसके पास ही धर्मस्थल आदि की दूरी बताने वाला मील का पत्थर लगा है। प्रवेशद्वार पर नागरी लिपि में श्री जैन मठ, उसके नीचे रोमन में यही नाम और उनसे भी नीचे श्री पार्श्वनाथ स्वामी, श्री दानशाला जैन मठ लिखा है। यह स्थान आबादीवाला स्थान है । प्रायः सभी बसें मठ के सामने से आती-जाती हैं । मठ में प्रवेश करते ही पार्श्वनाथ का छोटा-सा मन्दिर