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कारकल | 147
हए थे। लोगों ने उनसे अपने कष्ट का हाल कह सुनाया। इस पर भैरवराय ने हमचा से सेना बुलाई और हेग्गडे को परास्त कर शासन से हटा दिया। फिर भैरवराय ने यहाँ एक राजमहल और उसके मध्य में एक जिन-मन्दिर बनवाया तथा अपनी राजधानी को 'पाण्ड्यनगर' नाम दिया। सन् 1262 ई. में भैरववंशी पाण्ड्यदेव ने यहाँ अपने हाथियों को पानी पीने के लिए 'आने केरे' (आने हाथी, केरे तालाब) का निर्माण कराया था। कारकल के समीप ही आज भी स्थित 'हिरियंगडि' नामक स्थान पर लोकनाथ देवरस के शासनकाल में, 1334 ई. में श्रावकों ने यहाँ की प्रसिद्ध शांतिनाथ बसदि और 60 फुट ऊँचा मानस्तम्भ बनवाया था। यहीं, जैन मन्दिरों के पास ही, सन् 1416 में रामनाथ नामक शासक ने एक सरोवर निर्माण कराके उसे अपना नाम दिया । यह आज भी 'रामसमुद्र' कहलाता है।
यहाँ के शासक भैररस ओडेय का पुत्र जब 1418 ई. में श्रवणबेलगोल के गोम्मटेश्वर के दर्शन करके लौटा तो उसने भी ऐसी ही मूर्ति कारकल में बनवाने का निश्चय किया। जब वह राजगद्दी पर बैठा तो उसने वर्तमान गोम्मटेश की विशाल मूर्ति 1432 ई. में स्थापित करायी । अभिनव पाण्ड्यदेव ने 1457 ई. में हिरियंगडि की नेमिनाथ बसदि को दान दिया था। हिरिय भैरवदेव ने 1462 ई. में यहाँ जैन मठ की स्थापना कराई जो कि आज भी विद्यमान है। प्रसंग यों उपस्थित हुआ कि पनसोगे और मूडबिद्री दोनों के ही भट्टारक उसके गुरु थे। एक बार राजा ने 'सौभाग्य नोंवि' नामक व्रत करने में सहायता के लिए मूडबिद्री के भट्टारकजी को निमन्त्रित किया किन्तु मूडबिद्री के शासक भी यही व्रत कर रहे थे। इसलिए उन्होंने एक त्यागी को कारकल भेज दिया। राजा इससे अप्रसन्न हुआ और उसने उन त्यागी का ही पट्टाभिषेक करवाकर यहाँ पनसोगे मठ की शाखा स्थापित कर दी और भट्टारकजी को ललितकीति नाम दे दिया।
___ इम्मडि भैरवराय सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था। पुर्तगालियों ने गोआ में अत्याचार किए थे। उसके परिणामस्वरूप जब वहाँ के सारस्वत ब्राह्मण इस नरेश के आश्रय में आये तो इस शासक ने न केवल उन्हें आश्रय दिया अपितु उनके लिए 'वेंकटरमण देवस्थान' भी बनवा दिया। भैरव द्वितीय ने 1586 ई. में यहाँ का सुप्रसिद्ध चतुर्मुख मन्दिर बनवाया था। कीति का लोभ क्या नहीं करा लेता । यहाँ के शासक दामणि इम्मडि भैरवराय को जब यह पता चला कि वेणूर में भी कारकल जैसी गोम्मटेश मूर्ति प्रतिष्ठापित होनेवाली है तो उसे लगा कि इससे कारकल की कोति कम होगी। इसलिए मूर्ति की प्रतिष्ठा को रोकने के लिए उसने वेणूर के शासक के विरुद्ध 1602 ई. में युद्ध छेड़ दिया जिसमें वह हार गया था। अगले शासक वीर पाण्ड्य के रामय में वेणूर की अजिल रानी मधुरक्का थी। उसने वेणूर के गोमटेश्वर का महामस्तकाभिषेक कराना चाहा तो वीरपाण्ड्य इससे सहमत नहीं हुआ। इस पर रानी ने उसे ग्राम भेंट में दिया तब कहीं महामस्तकाभिषेक सम्पन्न हो सका। वीर पाण्ड्य से आगे इस वंश का इतिहास नहीं है और न ही उनके वंशज अब विद्यमान हैं। जो भी हो, इन शासकों के युग में कारकल में अद्वितीय जैन स्मारकों का निर्माण हुआ जिन्हें देखने वास्तुविद्, कलाप्रेमी और तीर्थयात्री सभी आते हैं।