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148 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
क्षेत्र-दर्शन
चतुर्मुख (चौमुखी) बसदि या त्रिभुवनतिलक चैत्यालय--आजकल इसे इन दो नामों से जाना जाता है किन्तु इसके निर्माण सम्बन्धी शिलालेख में इसे 'त्रिभुवनतिलक जिन चैत्यालय' और 'सर्वतोभद्र चतुर्मुख' कहा गया है (देखें चित्र क्र. 67)।
इस मन्दिर के निर्माण की भी एक अनुश्रुति है । यहाँ के राजा भैरवराय के शासनकाल में एक बार शृंगेरी मठ के शंकराचार्य कारकल आये। राजा ने उनका आदरपूर्वक स्वागतसत्कार किया। जब वे वापस जाने लगे तो राजा ने उनसे अनुरोध किया कि वे कुछ दिन और कारकल में ठहरें । इस पर शंकराचार्य नरसिंह भारती ने कहा कि वैदिक देवस्थान रहित स्थान पर वे अधिक नहीं रुकेंगे । यह सुनकर राजा ने (1567 ई. में) जो मन्दिर जिनेन्द्र देव के लिए बनवाया था उसमें ही शेषशायी विष्णु की मूर्ति स्थापित करवा दी और उसके लिए 'नेत्लिकारू' गाँव भी दान में दे दिया। आजकल यह 'अनन्तशयन देवस्थान' कहलाता है। सुन्दर शिल्पकलायुक्त यह मन्दिर भी यहाँ के दर्शनीय स्थानों में से एक है। जैन मन्दिर के लिए प्रस्तावित स्थान को जैनेतर मन्दिर के लिए दे देने पर यहाँ के भट्टारक ललितकीति अप्रसन्न हुए। सदा की भाँति जब राजा उनके दर्शन के लिए गया तो उन्होंने उसे 'धर्मद्रोही' कहा । अपने गम्भीर स्वभाव के अनुसार राजा ने उत्तर दिया कि राजा को समभावी या सबको एक ही दष्टि से देखनेवाला होना चाहिए, यही उसका कर्तव्य है। फिर भी, उसने भट्टारकजो को सन्तुष्ट करने के लिए यह प्रतिज्ञा की कि वह 'अनन्तशयन देवस्थान' से भी अधिक सुन्दर जैन मन्दिर बनवाएगा। तदनुसार 'चतुर्मुख बसदि' का कार्य प्रारम्भ हो गया। बाहुबली की मूर्ति पहले से ही उसके सामने की पहाड़ी पर प्रतिष्ठित थी।
चतुर्मुख बसदि में 1586 ई. का संस्कृत तथा कन्नड़ में एक शिलालेख है। उसमें वीतराग को नमस्कार करके कहा गया है कि राजा भैरवेन्द्र ने देशीगण पनसोगा के भट्टारक ललिकीर्ति मुनीन्द्र के उपदेश से यह मन्दिर बनवाया। लेख में पोम्बुर्च (हुमचा) की पद्मावती और पार्श्वनाथ तथा दोर्बलि (बाहुबली) के आशीर्वाद की कामना की गई । भैरवेन्द्र की माता का नाम गुम्मटाम्बा था । भैरवेन्द्र जिनदत्तराय (जैन सान्तर वंश के संस्थापक) का वंशज था और जिन गंधोदक से उसका शरीर पवित्र था। उसने निःश्रेयस् सुख की प्राप्ति के लिए कारकल की पाण्ड्यनगरी (कारकल की उपनगरी) में गुम्मटेश्वर के पास की कैलासगिरिसन्निभ चिक्कबेट (छोटी पहाड़ी) पर सर्वतोभद्र (जिसमें चारों ओर मूर्ति होती हैं) चतुर्मुख रत्नत्रय रूप त्रिभुवनतिलक जिन-चैत्यालय का निर्माण स्वर्णकलश की स्थापना कर कराया और उसमें अरनाथ, मल्लिनाथ तथा मुनिसुव्रतनाथ की मूर्तियाँ तथा पश्चिम दिशा में चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ स्थापित कराई।
इसी लेख से ज्ञात होता है कि इसके लिए तेलार नामक गाँव दान में दिया गया था जिससे 700 'मूडे' (धान्य) की प्राप्ति थी। इंजाल और तल्लूर गाँवों से भी आय होती थी जिससे पूजन का खर्च चलता था। नित्य पूजन के लिए 14 स्थानिक (पुजारी) नियुक्त थे। सबसे अधिक भीड़ पश्चिम द्वार की वेदी पर होती थी क्योंकि वहाँ चौबीसो थी। मन्दिर में बसनेवाले ब्रह्म