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कुन्दाद्रि (कुन्दकुन्दबेट्ट) । 141 भी दक्षिण भारत में नाम से पहले गाँव का नाम भी लगता है)। इनका वास्तविक नाम आचार्य पद्मनन्दी बताया जाता है। इनके चार नाम और भी बताए जाते हैं । ये आचार्य भद्रबाहु द्वितीय के अथवा श्रुतकेवली भद्रबाहु के पारम्परिक शिष्य माने जाते हैं । दिगम्बर जैन समाज में इनकी प्रतिष्ठा स्थापित हुई कि तभी से यह समाज मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय का माना जाता है। ये तमिलवासी थे। दक्षिण भारत के शिलालेखों में इनका नाम 'कोण्डकुन्द' आता है।
___इन महान् आचार्य ने जैनधर्म के प्रामाणिक ग्रन्थों की जो रचना की वह अद्वितीय है। प्रवचनसार, समयसार, पंचास्तिकाय, नियमसार आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों तथा 84 पाहुड-ग्रन्थों (प्राकृत में जैनग्रन्थ) की रचना इन्होंने की थी। शायद इसीलिए इन्हें गौतम गणधर के बाद नमस्कार किया जाता है।
कुन्दकुन्दाचार्य के विषय में एक कथा प्रचलित है जिसका सम्बन्ध इस पहाड़ी से है। बताया जाता है कि एक बार इन्हें जैन सिद्धान्तों के बारे में कुछ शंका हुई । उसके समाधान के लिए इन्होंने इसी पहाड़ी पर ध्यान लगाया और पूर्व विदेह क्षेत्र के तीर्थंकर सीमंधर स्वामी के समवसरण में जा पहुँचे। वहाँ वे एक सप्ताह रहे और अपनी शंकाओं का समाधान कर इसी पहाड़ी पर वापस आ गये।
यह भी अनुश्रुति है कि इन्होंने जब ध्यान लगाया तो सीमंधर स्वामी ने ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु' (सद्धर्म की वृद्धि हो) कहा । उपदेश के बीच में यह सुनकर भव्य जनों ने तीर्थंकर से इसका प्रसंग पूछा तो सीमंधर स्वामी ने उत्तर दिया कि “मैंने भरत-क्षेत्र के निर्ग्रन्थ कुन्दकुन्द आशीर्वाद दिया है।" सशरीर अन्यत्र गमन की घटनाएँ अनेक धर्मों व स्थानों में मिलती हैं । अब वैज्ञानिक भी इस तथ्य की ओर ध्यान देने लगे हैं । ईसाई धर्म में भी ऐसी घटनाएँ लिपिबद्ध हैं। इसलिए इस अनुश्रुति पर भी एकदम अविश्वास नहीं करना चाहिए। कुन्दकुन्दाचार्य को तीर्थंकर से दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ हो । उनकी रचनाओं को देखते हुए अविश्वास की गुंजाइश कम ही लगती है।
क्षेत्र-दर्शन
कुन्दाद्रि पर एक कुण्ड है जोकि पादुकाश्रम के पास में ही है। इसे 'पापनाशिनी' कहते हैं। इसका जल पीने के काम में आता है। यह कुण्ड प्राकृतिक है एवं पर्वत के शिखर पर है।
यहाँ दो गुफाएँ भी हैं।
उपर्युक्त कुण्ड के किनारे एक प्राचीन पार्श्वनाथ मन्दिर है। इसके सामने एक मानस्तम्भ है। गर्भगृह में पार्श्वनाथ की अद्भुत प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में है (देखें चित्र क्रमांक 63) । तीर्थंकर की मूर्ति को एक बड़ा सर्प लपेटे हुए है और अपने सात फणों की छाया पार्श्वनाथ पर कर रहा है। मूर्ति पर उसके दो लपेटे स्पष्ट देखे जा सकते हैं। सर्पकुण्डली पादमूल तक आई है। घुटनों के पास एक यक्ष है । इस प्रकार की प्रतिमा शायद अन्य किसी स्थान पर नहीं है । मन्दिर के द्वार और मण्डप में भी सुन्दर कलाकारी है।
कुन्दाद्रि पर जैन मन्दिरों के खण्डहर, मूर्तियों एवं कलापूर्ण शिलाखण्ड जहाँ-तहाँ बिखरे मिलते हैं। इससे प्रतीत होता है कि यह बहुत प्रसिद्ध तीर्थस्थान रहा होगा। वर्तमान में इसका