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कारवाड़ जिले के अन्य जैन-स्थल | 113
ने उनकी परीक्षा ली और अपने देश वापस भेज दिया। पुष्पदन्त और भूतबलि का मूल नाम कुछ और ही था। दोनों ही की दन्त-पंक्तियाँ असुन्दर थीं। अलौकिक प्रभाव से उनकी दन्तपंक्ति सुन्दर हो गईं और उन्हें पुष्पदन्त एवं भूतबलि ये नये नाम दिए गए। पुष्पदन्त ने अपने भानजे मुनि जिनपालित को आचार्य धरसेन द्वारा उपदिष्ट ज्ञान प्रदान किया और अन्त में बनवासि में आकर आगम को पुस्तक का रूप दिया। एक नई परम्परा प्रारम्भ हुई । आचार्य पुष्पदन्त इसके प्रारम्भकर्ता हुए। पुष्पदन्त और भूतबलि ने छह खण्डों में जो ज्ञान लिपिबद्ध किया, वह 'षटखण्डागम' कहलाया। उसका प्रारम्भिक भाग पुष्पदन्त की रचना है और शेष भाग भूतबलि की, जिसे उन्होंने तमिल देश में पूरा किया था। उसकी पूर्ति पर मुनि संघ ने ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को इस लिखित शास्त्र की पूजा की और इस दिन को श्रुतपंचमी नाम दिया गया। तभी से श्रुतपंचमी आज तक मनाते चले आ रहे हैं। इस प्रकार बनवासि जैन शास्त्र के इतिहास में अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान रखता है। आचार्य पुष्पदन्त का समय ई. सन् 50 से 80 माना गया है । वीर निर्वाण संवत् के अनुसार वे संवत् 663 के बाद हुए हैं।
कन्नड़ के महाकवि पम्प के लिए भी यह स्थान प्रेरणाप्रद था। समय की गति विचित्र है ! इस प्रसिद्ध जैन स्थल में अब केवल दस जैन परिवार रह गए हैं । यहाँ स्वादी मठ की एक शाखा है।
बनवासि में 'चन्द्रप्रभ बसदि' नामक एक मन्दिर है। उसमें ग्यारहवीं सदी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक की प्राचीन प्रतिमाएँ हैं। मन्दिर में सोलहवीं सदी की एक चौबीसी है जिसके मूलनायक कायोत्सर्ग मुद्रा में तीर्थंकर आदिनाथ हैं। उनके तीनों ओर पद्मासन में तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं। यक्ष-यक्षी का भी अंकन है। ग्यारहवीं सदी की कायोत्सर्ग मुद्रा में, लगभग साढ़े चार फुट ऊँची, मकरतोरण एवं यक्ष-यक्षी सहित प्रतिमा है। एक कांस्य-प्रतिमा भी है जिसके साथ परिकर नहीं है। उसका आसन उलटे प्याले की तरह है। चौदहवीं सदी की एक कांस्य तीर्थंकर प्रतिमा का आसन भी स्टूल की तरह का है। घोड़े पर सवार ब्रह्म यक्ष की मूर्ति भी यहाँ है जिसके पृष्ठभाग के फलक पर कमल पर आसीन एक तीर्थंकर लघु मूर्ति है। पद्मावती की एक 14वीं सदी की मूर्ति के मस्तक पर पार्श्वनाथ का अंकन है। गेरुसोप्पा (Gerusoppa)
यह होन्नवर तालुक में है । जोग-झरनों के पास ही स्थित यह सुन्दर स्थल एक पर्यटक केन्द्र भी माना जाता है। किसी समय यहाँ चन्नवैरादेवी नामक एक जैन रानी राज्य करती थी। उसे यहाँ का राज्य अपनी माता से उत्तराधिकार में मिला था। पुर्तगालियों ने 1542 ई. में उसे हराकर न केवल उसका राज्य ही छीन लिया अपितु यहाँ के जैन मन्दिरों को भी जी भरकर नष्ट किया। ईसाई धर्म का प्रचार करने में पुर्तगाली अंग्रेजों से भी कट्टर थे। इसका प्रमाण आज भी गोवा में अत्यधिक संख्या में चर्चों की विद्यमानता से मिलता है।
यहाँ के मन्दिरों आदि का प्रबन्ध हुमचा के भट्टारक स्वामी जी द्वारा किया जाता है। गेरुसोप्पा किसी समय एक प्रमुख जैन केन्द्र था। सन् 1360 में यहाँ तीर्थंकर अनन्तनाथ बसदि का निर्माण हुआ था। सन् 1563 में शान्तिनाथ बसदि का निर्माण सालुवनायक ने करवाया