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हमचा / 121
थका-माँदा जिनदत्त एक निर्गुण्डि (लक्की/लोक्कि) वृक्ष पर देवी की प्रतिमा लटकाकर गहरी निद्रा में सो गया। तभी स्वप्न में उसे पद्मावती का यह सन्देश सुनाई पड़ा : “जिनदत्त तुम अब यहीं बस जाओ, सेना तुम्हारी हो जाएगी, स्थानीय भील आदि तुम्हारी सहायता करेंगे। मेरी इस मूर्ति से यदि तुम लोहे का स्पर्श करा दोगे तो वह सोना बन जाएगा। अतः यहीं अपनी राजधानी बनाओ।" स्वप्न की दिव्यवाणी पर जिनदत्त को सहसा विश्वास नहीं हुआ। किन्तु जब वह मूर्ति को लेकर आगे बढ़ने का प्रयत्न करने लगा तो मूर्ति वृक्ष से हिली ही नहीं । अब उसे भविष्यवाणी पर विश्वास हो गया। इसी बीच शत्रु-सेना भी 'जिनदत्त की जय' 'पद्मावती की जय' करती हुई उससे मिल गई। स्थानीय आदिवासियों ने भी उसका स्वागत किया और सहयोग किया। इस प्रकार जिनदत्त ने मूर्ति के स्पर्श से प्राप्त सोने की सहायता से नई राजधानी का निर्माण किया, पद्मावती का एवं पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया और सुख से राज्य करने लगा। उसके गुरु सिद्धान्तकीति और माता श्रियादेवी भी वहाँ आ गये। उसका विवाह भी दक्षिण मथुरा के पांड्य राजा की पुत्री पद्मिनी और इसी राजा के भाई वीर पांड्य की कन्या मनोराधिनी के साथ हो गया।
कालान्तर में अपने कुकृत्य के फलस्वरूप, उत्तर मथुरा का राजा सहकार और शबरी रानी भी काल को प्राप्त हुए। वहाँ की पीड़ित जनता ने जिनदत्त से शासन सँभालने की प्रार्थना की। जिनदत्त ने अपने एक पुत्र को वहाँ का शासन सौंप दिया। श्रियादेवी ने भी पति की मृत्यु के बाद आर्यिका की दीक्षा ले ली।
पोम्बुर्चपुर का शासन करते हुए जब जिनदत्त को अनेक वर्ष बीत गये, तब पद्मावती देवी ने उसकी परीक्षा लेनी चाही। देवी ने स्थानीय तालाब (मूत्तिन केरे-मोतियों के तालाब) में दो मोती उत्पन्न किये। उनमें से एक तो शुद्ध और निर्दोष था और दूसरा कम चमकदार तथा दोषपूर्ण । कर्मचारियों से जब ये मोती राजा को मिले तो उसने शुद्ध मोती अपनी पत्नी को दे दिया और सदोष मोती पद्मावती देवी को भेंट कर दिया। दूसरे दिन जब राजा पद्माम्बा के दर्शन करने गया तो वह ठगा-सा रह गया। देवी की नाक में उसकी पत्नी का शुद्ध मोतीवाला नकफूल चमक रहा था । सही स्थिति का पता चलने पर जिनदत्त को बहुत पश्चात्ताप हुआ और वह देवी के समक्ष गिड़गिड़ाने लगा। उसे यह दिव्यवाणी सुनाई दी, "जिनदत्त, इसमें तुम्हारा अपराध नहीं है। इसमें दोष तो काल का है। तुम्हारे पिता ने भी स्त्री के मोह में पड़कर नर-माँस खाया और अपने पुत्र का अप्रत्यक्ष वध कराया । तुम भी अपनी पत्नी से विशेष आसक्त हो गये हो । तुम्हारी विपत्ति के समय वह कहाँ थी !" यह सुन जिनदत्त पश्चात्तापवश रुदन करने लगा। तब देवी ने फिर कहा, "जिनदत्त, मैं यहाँ नहीं ठहर सकती। मेरी पारसमति (जिसके स्पर्श से लोहे का सोना बन जाता था ) अब रसवापी में उतर जायेगी । मेरी दूसरी पाषाण-मूर्ति स्थापित करो। वही तुम्हारी और भक्तों की रक्षा करेगी।"
उदास राजा के देवी से यह पूछने पर कि देवी का सान्निध्य कैसे प्राप्त होगा, दिव्यवाणी सुनाई दी कि “जब तक (1) यह लोक्की वृक्ष नहीं सूखेगा, (2) यहाँ के सरोवर में पानी रहेगा, (3) कुमुदवती की धारा बहती रहेगी तथा (4) मेरी दाहिनी ओर से मनोकामना-पूर्ति की सूचक पुष्प-वृष्टि होती रहेगी, तब तक मेरा सान्निध्य बना रहेगा।"